कोरोना संकट के बाद उदारीकरण की रीढ़ रहे मध्य वर्ग की सबसे ज्यादा नौकरियां गई हैं। जो वर्ग बाजार को उछाल देने का काम करता था, पिछले डेढ़ साल से उसने नए कपड़े नहीं खरीदे, कई रपटें ऐसी आईं जिसमें बताया गया कि लोगों ने अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूल से हटा कर औसत दर्जे के या सरकारी स्कूलों में दाखिला करा दिया।
फूहड़ इस महंगाई में
आटा तो गीला मत कर,
मेरे पत्ते देख जरा
दो इक्के और इक जोकर।
- मोहम्मद अल्वी
हमारा परिवार प्याज नहीं खाता से लेकर पेट्रोल और डीजल के शुल्क में कोई कमी नहीं होगी। एक लोकतांत्रिक देश की वित्त मंत्री की इस अहंकारी भाषा को मुहावरों की दुनिया ने कोढ़ में खाज का नाम दिया है। यह उस देश की वित्त मंत्री की भाषा है जिसकी जनता पिछले डेढ़ साल में पूर्णबंदी से लेकर जाने कितनी तरह की बंदी झेल चुकी है। पिछले डेढ़ साल में कई सर्वेक्षण आए, जिसमें लोगों की नौकरियां जाने से लेकर खरीद क्षमता घटने के आंकड़े दिए गए। बाजार के विश्लेषक जब बढ़ती गरीबी की बात कर रहे हैं तो सरकार उन गरीबों का आटा गीला करने की बात कर रही है। यह उसके अहंकार का बढ़ता सूचकांक है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण महंगाई का दर्द कम नहीं कर सकती हैं तो उन्हें सांत्वना देने के लिए कम से कम बाजार की ही भाषा सीख लेनी चाहिए। ग्राहक कोई जूता या कपड़ा देखता है तो उसमें लिखा होता है, सिर्फ 899 रुपए में। ग्राहक के दिमाग में नौ सौ से सिर्फ एक रुपया कम की बात बाद में आती है, आठ सौ पहले आ जाता है। यानी उसकी यह खरीद हजार को नहीं पार करेगी तो उसे एक मनोवैज्ञानिक संतोष हासिल होता है। लेकिन हमारी सरकार महंगाई की मार पर जनता को मनोवैज्ञानिक राहत देने के लिए भी तैयार नहीं है। सरसों तेल की कीमत आसमान छूती है तो बाजार 200 मिलीलीटर का टेट्रा पैक ले आता है कि बस पचास रुपए में सरसों का तेल ले जाओ। अब यह दूसरी बात है कि चार आदमी के परिवार में 200 मिलीलीटर सरसों तेल से क्या होगा।
आज सबसे अहम और असल संकट कोरोना का है। यह वैश्विक संकट है। कई पूंजीवादी देश भी इसकी मार से बुरी तरह लड़खड़ाए और वहां भी बड़े पैमाने पर पूर्णबंदी लगाई गई। लेकिन बाजार के घोर समर्थक इन देशों ने अपने देश की खरीद क्षमता को बनाए रखने के लिए भरपूर कदम उठाए और लोककल्याणकारी सरकार की तरह व्यवहार किया। जो देश समाजवादी ढांचे के नहीं थे उन्होंने पूंजीवाद को बचाने के लिए इसी का सहारा लिया। बाजार को जिंदा रखने के लिए खरीदार को बचाया। वहां मध्य वर्ग को भी बड़ी संख्या में नकदी हस्तांतरण किया ताकि लोगों की खरीद क्षमता बनी रहे। लेकिन समाजवाद की नीतियों से मुक्त होते हुए पूंजीवाद की ओर बढ़ते हुए भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश में ठीक इसके विपरीत हुआ। गरीब तबकों में मुफ्त अनाज और राशन बंटवाने का काम जरूर हुआ। लेकिन नकदी हस्तांतरण की ओर कदम नहीं बढ़ाए गए।
वैश्वीकरण के दौर के बाद नई आर्थिक नीति ने भारत की अर्थव्यवस्था को नए मध्य वर्ग का तोहफा दिया था। इस वर्ग की खरीद क्षमता में तेजी से विस्तार हुआ। यह वह तबका था जो राजनीतिक रूप से कांग्रेस और भाजपा दोनों का था। 2014 के बाद 2019 में भाजपा को जो दोहरी बड़ी जीत हासिल हुई, उसमें बहुत बड़ी भूमिका इसी मध्य वर्ग की रही है। यह तबका समाज की सोच का निर्धारक भी रहा है। लंबे समय से यह हर संकट में सरकार के साथ खड़ा रहा इसलिए सरकार को ज्यादा परेशानी भी नहीं हुई। लेकिन कोरोना के बाद के संकट में इसी मध्य वर्ग को सबसे ज्यादा उपेक्षित किया गया। इसका नतीजा यह रहा कि उदारीकरण के ‘गौरवशाली’ तीस साल के बाद इस तबके की संख्या में गिरावट होती है। इसका एक बड़ा हिस्सा तो गरीबी रेखा की सीमा तक पहुंच गया।
मध्य वर्ग की खरीद क्षमता जिस तेजी से घटी उसका बहुत बड़ा असर पर्यटन के क्षेत्र में भी पड़ा जो कई राज्यों में आमदनी का बड़ा जरिया था। यह तबका किसी तरह के निवेश करने की भी हालत में नहीं रहा। निजीकरण के इस दौर में वह निवेश नहीं करेगा तो अनिश्चितता की हालत में रहेगा। आगे पता नहीं क्या हो की चिंता में वह खर्च नहीं करेगा। ऐसे में बाजार की मांग के साथ औद्योगिक उत्पादन घटना तय है। उत्पादन घटेगा तो छंटनी भी होगी जो इस वर्ग को और बड़ा नुकसान पहुंचाएगी।
यूरोपीय और अमेरिका जैसे देशों ने अपने बाजार को बचाने के लिए मध्य वर्ग को बचाया। लेकिन निजीकरण का जाप जप रही सरकार इसी बाजार के खरीदार को कंगाल कर रही है। ईंधन तेलों की बढ़ी कीमत का असर दूध-सब्जी से लेकर माचिस तक पर पड़ता है। उस नई शिक्षा नीति का क्या होगा जो स्ववित्तपोषित शैक्षणिक संस्थानों की बात कर रही है? आखिर क्या वजह रही कि ईंधन तेल के ऊंचे दाम को स्वीकार्य करवाने वाले मंत्री को ही शिक्षा विभाग का जिम्मा दिया गया? वजह साफ है कि नई शिक्षा नीति को जमीन पर लाने के लिए बाजार तैयार नहीं हो पा रहा। नई शिक्षा नीति मौजूदा सरकार की बड़ी प्राथमिकताओं में से एक है। लेकिन क्या आत्मनिर्भर शैक्षणिक संस्थान बिना शैक्षणिक कर के चल पाएंगे। जिसे कल का पता नहीं क्या वे आज अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए भारी-भरकम शैक्षणिक कर्ज लेने की हालत में होंगे?
सार्वजनिक कर वह खंभा है जिस पर बाजार की व्यवस्था टिकी हुई है। लंबे समय तक महंगाई की मार इस खंभे को भी हिला देगी। भारत में अभी उदारीकरण के तीस साल पूरे होने पर चर्चा चल रही है। इस तीस साला सवाल में अभी का हलाल मध्य वर्ग विश्लेषकों के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चिंता का विषय है।
थोड़े समय की महंगाई तो झेली जाती है। लेकिन जब यह स्थायी हो जाए तो मंदी और बेरोजगारी पैदा करती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में जड़ता जैसे विकट हालात न हों इसके लिए सरकार पहले अपने अहंकार के बढ़ते सूचकांक पर काबू पाए। जब तक वह जमीनी सच तक लुढ़केगी, तब तक कहीं बहुत देर न हो जाए।
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