राजकुमार भारद्वाज
पिछले दो दशक से युवा पीढ़ी में बदलाव को लेकर भारत में लगातार संवाद हो रहा है। कई लोग इस पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से समझदार बताते, तो कई उच्छृंखल कहते हैं। देश के तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल इन पर दांव खेलते हैं, तो सभी राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय व्यावसायिक, औद्योगिक, व्यापारिक घराने इसी पीढ़ी को केंद्र में रख कर अपना भविष्य चमकाने की योजनाएं बना रहे हैं। बैंगन का भर्ता, चोखा, चूरमा, मोमोज बनाने वाले, ठेले वाले से लेकर आलू की चिप्स बनाने वाली कंपनियों तक, गूगल और धर्म-अध्यात्म का व्यवसाय करने वालों तक सबका ध्येय युवाओं को लुभाना है।
नए अध्ययन बताते हैं कि युवा पीढ़ी तेजी से चार्वाक दर्शन ‘यावत् जीवेत, सुखम् जीवेत, ऋणम् कृत्वा घृतम् पिवेत’ की ओर बढ़ रही है। निजी कंपनियों में थोड़े-थोड़े वेतन पर काम करने वाले युवक किश्तों पर गाड़ियां खरीद रहे हैं। महंगे किराए के मकानों में रह रहे हैं। पिज्जा-बर्गर, सिगरेट, शराब, क्लब, मौज-मस्ती और घूमने-फिरने पर बेहिसाब खर्च कर रहे हैं। महंगे होटलों में रुकना उनका बड़ा शौक है। स्मार्ट फोन का इस्तेमाल यह पीढ़ी इतनी तेजी से करती है कि कई बार लगता है जैसे स्मार्ट फोन उसको भोग रहा है। कहा जा रहा है कि देश की यह पीढ़ी जीवन का मजा ले रही है, लेकिन लगता है कि इस पीढ़ी के बलबूते बड़ी कंपनियां डॉलर छाप रहीं हैं।
एक अध्ययन के मुताबिक पिछले तीन-चार वर्षों में भारत के युवाओं में सहभाजन अर्थशास्त्र (शेयरिंग इकॉनोमी) का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। युवक ‘ब्ला-ब्ला’ जैसे स्रोतों से गाड़ियां शेयर कर रहे हैं। यह अलग बात है कि अधिकांश लड़के-लड़कियां कार यात्रा शेयर करना पसंद करते हैं। ‘ब्ला-ब्ला’ से एक व्यक्ति ने अपनी भतीजी के जरिए शेयरिंग गाड़ी बुक की, जब कार के मालिक को पता चला कि बुक करने वाली लड़की नहीं, उसके चाचा उसमें जा रहे हैं, तो वे सज्जन अपनी गाड़ी लेकर अकेले ही जयपुर चले गए। वैसे यह पीढ़ी, जो रिश्तों को लेकर आवश्यकता से अधिक खुली है, इस मामले में अपने भविष्य को भी खतरे में डाल रही है।
समाजशास्त्री बलवान सिंह कहते हैं, ‘इस पीढ़ी को कम आयु में विपरीत लिंगी मित्र चाहिए। अधिकतर ये अपने शिक्षकों से अधिक ज्ञानवान हैं।’ खानपान, भाषा-वेशभूषा के मामले में यह पीढ़ी पश्चिम की दीवानी है। सार्थक संवाद में उसका विश्वास नहीं है। रिश्तों में ईमानदारी का नितांत अभाव है। आईपीएल पर सट्टा या शर्त लगाने में आगे रहती है। यातायात नियमों को तोड़ने में वह गर्व का अनुभव करती है। उसे गाली-गलौच से कोई परहेज नहीं। संघर्ष से बचना चाहती है, शॉर्टकट से सब कुछ पाना चाहती है।
पिछले कुछ वर्षों में जवानों के अधिक संख्या में सेना छोड़ने, सेना में भर्ती होने के लिए स्वस्थ और छह फुटे जवानों के न आने पर यह पीढ़ी बात करने से बचती है। जाति-संप्रदाय को लेकर उसमें कट्टरपन बढ़ा है। अपने से बड़ों का सम्मान और जरूरतमंदों की मदद करने जैसे विषय बहुत कम युवाओं के एजेंडे में हैं। समय निष्ठा को तो वह जानती ही नहीं।
खाए जाओ, पीए जाओ जैसे आकर्षक विज्ञापन देने वाली अधिकतर कंपनियां न केवल भ्रामक विज्ञापन, बल्कि सर्वेक्षणों के बाद अपने खाद्य उत्पादों के बारे में भ्रामक जानकारियां भी देती हैं। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने पिछले दिनों दावा किया कि देश की युवा पीढ़ी स्वास्थ्य के प्रति पिछली कई पीढ़ियों से अधिक गंभीर है, लेकिन ऐसा होता, तो देश में शराब, सिगरेट, पिज्जा, बर्गर, शीतल पेयों का प्रचलन इतना नहीं बढ़ता। इस कंपनी ने कहा कि यह पीढ़ी तुलनात्मक दृष्टि से अपनी पुरानी पीढ़ियों के मुकाबले अधिक राष्ट्रभक्त है, अगर ऐसा होता, तो शरीर को हानि पहुंचाने वाले फास्ट फूड का देश में इतना प्रचलन न बढ़ता और देश का पैसा विदेशों में न जाता।
बाजार का एक ही देवता है, वह है लाभ और केवल लाभ। आज व्यापारी किसी भी तरीके से धन कमाना चाहता है। इसलिए बाजार के खिलाड़ी समाज की परंपराएं और परिभाषाएं भी बदल रहे हैं। यही कारण है कि पहले फर्जी सर्वेक्षण होते हैं। फिर खरीदे हुए अर्थशास्त्रियों से अपने मनमाफिक परिभाषाओं पर बयान दिलावाए जाते हैं। फिर कई शिक्षकों, कॉलेजों को कमीशन देकर ऐसी किताबें पढ़वाई जाती हैं, जिनमें युवाओं को यह तक बताया जाता है कि बचत बुरी चीज है। पचास वर्ष से आदिम दुनिया तक के लोग बचत करते रहे हैं। चाणक्य ने आपात स्थिति के लिए बचत को गृहस्थी का मूल मंत्र बताया है। इन पचास सालों में ‘बचत’ कैसे अप्रासंगिक हो गई।
दूसरे, बचत के सिद्धांत से बाजार में कभी मंदी नहीं आती। व्यक्ति धन को बैंक में जमा करता है। जब पूंजी इकट्ठी हो जाती है, तो वह गहने, बच्चों की उच्च शिक्षा, मकान, विवाह पर खर्च करता है। कुछ खास अवसरों पर ज्यादा धन खर्च करता है। अंतत: वह धन बाजार में ही पहुंचता है। बचत का धन बैंकों में जमा रहता है। बैंक में धन बेकार नहीं रहता है। बैंक उस धन को प्रतिदिन के हिसाब से स्वरोजगारियों, व्यापारियों और उद्यमियों को कर्ज देने में उपयोग करते हैं। इससे व्यवसाय बढ़ता है। बचत का धन बाजार में कभी भी मंदी के लिए उत्तरदायी नहीं रहता। आपका धन बैंक के माध्यम से बाजार में मौद्रिक तरलता जारी रखता है। बाजार, कई अर्थशास्त्रियों, शिक्षाविदों और कॉलेजों का गठजोड़ युवाओं में विलासिता का भाव जगा कर सब कुछ खर्च डालने को बाजार में उतारने के लिए बहुत ही महीन स्तर पर कार्य कर रहे हैं।
वर्ष 2017 में हुए एक अध्य्यन में कहा गया था कि भारत की वर्तमान पीढ़ी अपने पिताओं से अधिक सुखी और प्रसन्न रहेगी। आश्चर्य! शराब, सिगरेट, पिज्जा, बर्गर खाने वाली, पानी की भांति शीतल पेय डकार जाने वाली, दिन-रात स्मार्ट फोन पर उलझी रहने वाली, छोटी-छोटी बातों के लिए देश को कोसने, विदेश जाने की धमकी देने वाली यह पीढ़ी, जिसके सामने माता-पिता ने बागी होने के डर से समर्पण कर दिया है, कैसे प्रसन्न रहेगी?
युवाओं के बारे में डिजिटल मीडिया पर एक लड़की लिखती है, ‘सम वांट कैश, सम वांट ऐश’। एक अन्य टिप्पणी- ‘सम डाई इन लव, सम लिव फॉर लव’। समाजशास्त्री कहते हैं कि आज के बहुत से युवाओं को इतना लाड़ मिला है कि कई भूल गए हैं कि टहलना भी कोई चीज होती है। वे स्कूटी, मोटरबाइक और कार के अलावा कुछ नहीं जानते। आज युवाओं पर कई बार यह आरोप सही लगता है कि वह अपने में मस्त है। एक मनोवैज्ञानिक कहती हैं, ‘युवाओं का बहुत सारा समय कॉफी शॉप में बीतता है, वे अपने आसपास के वातावरण से बिल्कुल बेपरवाह हैं।’ युवा पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की तुलना में अधिक रचनात्मक है।
तकनीक ने भी इस मामले में उसे बेहतर और अधिक अवसर दिए हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते थे, ‘युवक तकनीक का देशज भाषा-वेशभूषा, संस्कृति और परंपराओं के साथ तालमेल बिठा कर अपने और राष्ट्र दोनों के लिए बेहतर कर सकता है।’ वह कहते थे, ‘तकनीक का दास बनने की आवश्यकता नहीं है, न ही इसका संबंध हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा से है। कहीं पश्चिम की कोरी नकल हमारी आत्महीनता तो नहीं।’ युवाओं के पास ऊर्जा का भंडार है। इस पर युवाओं को मंथन की आवश्यकता है। राष्ट्रहित में युवाओं को अमेरिका जाने, अमेरिका बिछाने-ओढ़ने, अमेरिका होने की मानसिकता से बाहर निकलने के लिए यह एकदम उपयुक्त समय है। कारण कि देश के प्रधानमंत्री और सरकार स्वदेशी, स्वरोजगार से राष्ट्र के युवकों का स्वाभिमान ऊंचा कर रहे हैं।
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