स्मृतियों का दंश

कुछ लोग अतीत के बुरे अनुभव और भूलों पर इतना टिक जाते हैं कि उनकी एकाग्रता पूरी तरह बीते समय के घावों को ताजा करने में लग जाती है।

पूनम पांडे

कुछ लोग अतीत के बुरे अनुभव और भूलों पर इतना टिक जाते हैं कि उनकी एकाग्रता पूरी तरह बीते समय के घावों को ताजा करने में लग जाती है। अच्छा-खासा चेहरा मुरझाने लगता है, सोच कुंद हो जाती है, परिपक्वता बेहद कम हो जाती है। कुछ लोग तो अच्छे-खासे पढ़े-लिखे होकर भी हर पल अपने गुजरे समय के क्लेश, दुख, अपमान, नुकसान, ग्लानि, भय, भूल आदि में इतना लिपट कर रहते हैं कि वर्तमान की ताजा हवा, जीवन का आनंद, खुशी, आज की उपलब्धि, अच्छे पल आदि कुछ भी उनको सुकून नहीं देता।

अतीत के ये ज्वार भाटा जब नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं तो हर बांध टूट जाता है, रक्तचाप, अवसाद, सिरदर्द, भ्रम आदि बीमारियां हावी हो जाती हैं। कभी बहुत जोर से चीखने और शिकायत करने का मन हो जाता है और कभी सब कुछ सामान्य होते हुए भी किसी से बात करने का मन नहीं करता। शरीर भी सुस्ती का शिकार और आचरण चिड़चिड़ा हो जाता है। बार-बार पेट खराब, जुकाम हो जाता है और या तो भूख बहुत लगती है या खाने की थोड़ी भी इच्छा नहीं होती। हमेशा वे गुजरे पल, अतीत की परछाइयां आंखों के सामने तैरती रहती हैं। लगता है कि फिर वही सब जीवन में घटने वाला है।

इन सबसे कुछ लोग इतने आहत होते हैं कि उनके मन के इस बोझ का असर शरीर पर भी होने लगता है। जरा सोचिए कि हमारे जीवन में जो समय है, वही खास होता है, पर यह भूल कर हम बीते समय की बुरी यादों में डूब कर अपना आज खराब करते हैं। एक दार्शनिक अपने शिष्यों को हर रोज सुबह एक बात जरूर याद दिलाते थे कि यह जो आज है, यही तुम्हारा सबसे अच्छा दिन है और कोशिश करो कि उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका कब निभा सको। इसका सकारात्मक परिणाम यह होता था कि उनके शिष्य हमेशा यही विचार करते कि इस जीवन ने हमें कितना कुछ दिया है, इसलिए अब जरूरी है कि अपनी हस्ती को भावी जीवन के लिए तैयार किया जाए।

आज तकनीक की बदौलत हर पल बदलते सामाजिक परिवेश में सबको मनपसंद ढंग से अपनी प्राथमिकता को चुनने का हक मिला है। पर यह भी सच है कि सहूलियत की अधिकता और उससे निराश होना कतई अच्छा नहीं है। आजकल नए समाज को बहुत सुख और मनोरंजन से भी दुख ही मिल रहा है। दरअसल, मनबहलाव में कमी न हो और मनोरंजन हो जाए, इसके लिए हम कुछ भी चुनने लगे हैं। अपने आसपास देखिए तो अपनी किसी गलती पर रोने वालों की कमी नहीं है। लगता है, मानो हम गलती करके मिटने जा रहे हैं और दूसरों के जीवन में अतीत का कोई पन्ना बिगड़ा हुआ नहीं है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम इसलिए ज्यादा दुखी रहते हैं कि अतीत के किसी अपराधबोध या दूसरे किसी के अपमानजनक व्यवहार से ग्रसित होने के पल हमने हर रोज जीवंत कर लिए हैं। लंबे समय तक जेल के कैदियों और किसी संस्थान मे मानसिक प्रताड़ना के शिकार लोगों के साथ यही होता है। वे वहां के रूखे व्यवहार, किसी के अपमानजनक शब्द को भूलना नहीं चाहते। लेकिन नेल्सन मंडेला भी लगभग तीन दशक जेल में रहे, पर जब आजाद हुए तो सारे संसार ने देखा कि वे आशा और उत्साह से लबरेज थे। उनकी तरह अपने व्यवहार में सुधार करना कठिन काम जरूर हो सकता है, मगर नामुमकिन नहीं। अगर कभी हमें लगे कि हम अपने अतीत के दुख को उतार फेंकने में असमर्थ हैं तो किसी मनोवैज्ञानिक सलाहकार की मदद ली जा सकती है। ध्यान, नृत्य, संगीत, बागवानी करके भी अपने दुख, क्लेश, मलाल और ग्लानि से बाहर निकल कर भावनात्मक बोझ से मुक्त हुआ जा सकता है।

अगर इस रंग-बिरंगी जीवन यात्रा में कभी किसी मोड़ पर किसी ने अनजाने में हमें बहुत धोखा दे दिया या फिर किसी ने गलती से हमारा अपमान कर दिया तो उस तनाव से जितनी जल्दी हो सके बाहर निकलने की जरूरत है। माफ कर दिया जाए, भूल जाया जाए या फिर जब-जब किसी का पक्षपाती व्यवहार, कठोर शब्द, किसी से पहुंची चोट या जख्म आहत करें तो खुद को दो मिनट देकर कुछ चित्रण करना चाहिए। अगर इसे एक सामान्य बात या घटना कह कर उस दूसरे काल्पनिक दुखी को समझाया जाए धीरे-धीरे तो दुखों से सामना करना बहुत मुश्किल नहीं है।

मनोवैज्ञानिक भाषा में इसे परिपक्व सलाह कहा जाता है और खुद से सकारात्मक बात करना तो आज व्यवहार मनोविज्ञान की नजर में सेहतमंद और सुलझे हुए इंसान की पहचान है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किसी बुरी याद को दो-तीन बार एक-एक मिनट तक याद करने से वह हावी होने लगती है, तन मन को दीमक बन कर खोखला करने लगती है। जबकि अच्छे पल बस एक बार कुछ पलों तक याद किएं जाएं तो शरीर में लाभदायक हारमोन सक्रिय हो जाते हैं, अनियमित रक्त प्रवाह तक सामान्य हो जाता है। तो अगर हम सोचें तो इस अनमोल जीवन के लिए हम क्या चुनेंगे- टीस या उल्लास?


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