पहला नियम टीवी पत्रकारिता का है कि कैमरे के साथ मुकाबला करने की कोशिश न करें। यानी जिन चीजों को तस्वीरें बयान कर रही हैं, उनकी चर्चा करने की जरूरत नहीं है। मगर अपने प्रधानमंत्री इतने महीनों बाद किसी अहम विदेश यात्रा के लिए रवाना हुए पिछले सप्ताह कि जाने-माने पत्रकारों ने इस बुनियादी नियम को ताक पर रख दिया। सो, जब प्रधानमंत्री अपने नए और बहुत खास विमान की सीढ़ियां चढ़ रहे थे कमेंट्री कुछ ऐसी सुनने को मिली : प्रधानमंत्री अब सीढ़ियां चढ़ रहे हैं, उन्होंने सफेद कुर्ता और चूड़ीदार पैजामा पहना है और ऊपर से एक जैकेट। अब रुके हैं और मास्क उतार कर नमस्ते कर रहे हैं- अब ऊपर पहुंच गए हैं और फिर से नमस्ते कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री की इस यात्रा से इतना उतेजित हो गए बड़े-बड़े, अति-प्रसिद्ध टीवी एंकर और पत्रकार कि पत्रकारिता के उसूल भूल कर सरकारी प्रवक्ताओं की तरह प्रशंसा करने लगे। एक लोकप्रिय हिंदी समाचार चैनल पर कुछ पाकिस्तानी पत्रकारों को बुलाया गया, लेकिन उनकी राय लेने के बजाय एंकर साहिबा ने उनको डांटना शुरू कर दिया कुछ इस तरह। देखिए, हमारे प्रधानमंत्री कैसे मिल रहे हैं दुनिया के ताकतवर नेताओं के साथ और आप लोग हैं कि भीख का कटोरा लिए फिरते हैं दुनिया में। किसी सरकारी प्रवक्ता ने यह बात कही होती, तो भी ज्यादती होती। जब पत्रकार ऐसी बातें करने लगते हैं तो पत्रकार न रह कर अनुयायी बन जाते हैं, राजनेता बन जाते हैं।
अब अगर आप पूछने लगे हैं कि इतने उतावले क्यों हो रहे थे राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध टीवी पत्रकार, तो जवाब मैं यही दे सकती हूं कि जैसे नरेंद्र मोदी अपने आप को विश्वगुरु के रूप में देखना चाहते हैं वैसे ही कुछ पत्रकारों की भी यही इच्छा है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी इतनी बार विदेश यात्राओं पर गए कि आम भारतवासी खुश हो गए जब लाखों की तादाद में प्रवासी भारतीयों ने उनका स्वागत किया और दुनिया के सबसे बड़े राजनेताओं के साथ झप्पियां पाते दिखे हमारे प्रधानमंत्री।
दूसरे कार्यकाल की भी विदेशी दौरों की शुरुआत धूम-धाम से हुई ‘हाउडी मोदी’ के जश्न से, लेकिन फिर आ पहुंची ये कमबख्त महामारी और दुनिया के तकरीबन सारे देशों ने अपने दरवाजे बंद कर दिए। अपने प्रधानमंत्री पिछले पूरे साल कहीं नहीं जा सके बावजूद इसके कि उनकी विदेश यात्राओं के लिए खरीदे गए हैं दो विशेष विमान।
अब सवाल है कि क्या मोदी का स्वागत उसी जोश से होगा, जैसे पहले हुआ करता था? अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि ऐसी हम उम्मीद नहीं कर सकते, क्योंकि दुनिया बहुत बदल गई है कोविड के इस दौर में। राजनेता बदल गए हैं अमेरिका और यूरोप में और क्योंकि भारत की आर्थिक अहमियत कम हो गई है दुनिया के बाजारों में, देश की भी अहमियत कम हो गई है। ऊपर से राजनीतिक तौर पर मोदी की छवि को खासा नुकसान हुआ है।
नुकसान शुरू हुआ उस पहली बंदी से जब बेहाल, गरीब, अचानक बेरोजगार और बेघर हुए मजदूर मजबूर होकर अपने गांवों तक पैदल निकल पड़े। उनकी हालत देख कर दुनिया को याद आया कि भारत अब भी गुरबत और बेरोजगारी से युद्ध जीत नहीं पाया है। मोदी के भक्त चाहे जितना मर्जी हल्ला मचाते फिरें सोशल मीडिया पर उनकी महानता के गुण गाकर, यह कड़वा सच किसी से छिपा नहीं है।
इतना काफी होता उस विश्वगुरु वाले सपने को समाप्त करने के लिए, लेकिन मोदी की मुश्किलें और भी हैं। अपने इस दूसरे दौर में उनकी छवि बन गई है एक ऐसे राजनेता की, जो अपने आप को लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं से ऊपर मानते हैं। आलोचना सहना लोकतांत्रिक राजनेताओं के लिए बुनियादी सिद्धांत माना जाता है, लेकिन मोदी ने दिखाया है कई बार अपने दूसरे कार्यकाल में कि जो पत्रकार उनकी प्रशंसा नहीं करते हैं, उनको दुश्मन माना जाएगा और उनके साथ इस तरह की कार्रवाई होगी, जिससे उनका मुंह बंद कर दिया जाएगा। जिस दिन तालिबान के प्रवक्ताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी काबुल में, उस दिन सोशल मीडिया पर मोदी के कई आलोचकों ने याद दिलाया कि उन्होंने पिछले सात सालों में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है।
राजनीतिक तौर पर मोदी की दूसरी समस्या यह है कि उनके राज में इस देश के मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं। तुष्टीकरण हटाने के नाम पर उन पर हर तरह के हमले हुए हैं। पहले गौमाता के नाम पर और फिर लव जिहाद के नाम पर। जब गोरक्षकों ने अपने हमले थोड़े कम किए, तो सामने आए भगवा पटका लटकाए हमलावर युवक, जो चलते-फिरते मुसलमानों को घेर कर पीटना शुरू करते हैं किसी न किसी बहाने। कभी किसी को पीटा जाता है इसलिए कि वह चूड़ियां बेचने आया था किसी ‘हिंदू’ बस्ती में, तो कभी किसी को पीटा जाता है सिर्फ उससे ‘जय श्रीराम’ बुलवाने के लिए। ये लोग जब पकड़े जाते हैं, तो अक्सर पाया जाता है कि उनका वास्ता संघ परिवार की किसी संस्था से होता है। लेकिन दोष लगता है मोदी के सिर, क्योंकि उन्होंने कभी ऐसी घिनौनी हरकत को न रोका है और न ही इनके खिलाफ आवाज उठाई है।
इन सारी चीजों के कारण मोदी की छवि दुनिया की नजरों में कम हो गई है। सो, अब जब पहुंचे हैं न्यूयॉर्क, उस सबसे अहम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करने, हो सकता है कि उनका स्वागत वैसे न हो जैसे कभी हुआ करता था। जब 2014 में गए थे संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने, मैं न्यूयॉर्क में थी और उनका स्वागत देख कर दिल खुश हो गया था। इस बार अगर उनका स्वागत उस जोश से नहीं होता है, तो शायद देश लौटने के बाद उनको एकांत में थोड़ा आत्ममंथन की जरूरत है।
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