किसानों के दस घंटे के भारत बंद से साफ हो गया कि किसान अभी भी एकजुट हैं और मांगें पूरी होने तक पीछे नहीं हटने वाले।
गौरतलब है कि तीन नए कृषि कानूनों की वापसी को लेकर चल रहे किसान आंदोलन को दस महीने हो चुके हैं। आमतौर पर ऐसे आंदोलन इतने लंबे चल नहीं पाते। दिल्ली की सीमाओं पर किसान लगातार डेरा डाल हुए हैं। कहने को सरकार और किसान संगठनों के बीच ग्यारह दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन सब बेनतीजा रही। ऐसे में सवाल यही बना हुआ है कि किसानों और सरकार के बीच आखिर कब तक ऐसा गतिरोध बना रहेगा? किसानों की एकजुटता बता रही है कि वे अब आसानी से पीछे नहीं हटने वाले। संयुक्त किसान मोर्चा के अध्यक्ष राकेश टिकैत ने लंबी रणनीति की बात कह कर स्पष्ट संकेत दे दिया है कि लड़ाई अब आगे चलेगी। टिकैत का यह कहना कि कानून वापस नहीं हुए तो आंदोलन दस साल तक भी चल सकता है, इस बात को पुष्ट करता है कि किसान अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी में हैं। अब साफ हो चला है कि आगामी चुनावों में इसका असर दिखना तय है। पिछले कुछ महीनों में हुई महापंचायतें भी इस बात की तस्दीक करती हैं। जाहिर है, आंदोलन का दायरा अब काफी बढ़ चुका है।
सरकार और किसानों के बीच गतिरोध गंभीर चिंता का विषय बन गया है। अगर सर्वशक्तिमान सरकारी तंत्र आंदोलनकारियों से बातचीत के जरिए संकट का समाधान नहीं खोज पा रहा है तो इसे सरकार की नाकामी ही कहा जाएगा। किसान आंदोलन को लेकर अब तक सरकार का जो रुख दिखता रहा है, वह निराश करने वाला ही है। लगता है कि सरकार ने किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। वैसे यह गतिरोध दोनों ही पक्षों की हठधर्मिता का भी नतीजा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। किसानों की तरफ से भी लचीले रुख की दरकार है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों ही पक्ष इसमें अपने राजनीतिक लाभ देख रहे हैं। याद किया जाना चाहिए कि दस महीने के आंदोलन में बड़ी संख्या में किसानों की जान गई है। सोमवार के भारत बंद में भी दिल्ली सीमा पर एक और किसान की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। एक कृषि प्रधान देश में अगर अपनी मांगों के लिए किसानों को इतनी पीड़ा झेलनी पड़े तो इससे ज्यादा दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता। पर लगता है सरकार और किसान संगठन दोनों ही इस बात को समझ नहीं रहे हैं।
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