होड़, हिंसा और खेल

खेल और खेल भावना को हमेशा सकारात्मक अर्थों में लिया जाता है।

मीनाक्षी सोलंकी

खेल और खेल भावना को हमेशा सकारात्मक अर्थों में लिया जाता है। माना जाता है कि यह मनुष्य को सेहतमंद बनाने के साथ उसके भीतर सद्भावना का भी विकास करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंसक संघर्ष और होड़ को खेलों के मानकीकरण का नया आधार बनाया जा रहा है। इस कारण कई ऐसे खेल हमारे आसपास से लेकर बड़े आयोजनों तक में तरजीह पा रहे हैं जिनसे मनुष्य का भीतरी सद्भाव तो कम होता ही है, ऊपर से एक हिंसक सनक तेजी से जोर पकड़ती है।

खेलकूद की प्रवृत्ति मानव समाज में अनादिकाल से चली आ रही है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार इसका ह्रास या विकास होता रहा है। हाल में तोक्यो में आयोजित ओलंपिक और पैरालंपिक खेल समाप्त हुए हैं। भारत का उल्लेखनीय प्रदर्शन देखकर समस्त देशवासी गर्व से फूले नहीं समा रहे। ओलंपिक खेलों को विश्व के हर समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। इस स्पर्धा में पदक अर्जित करना अत्यंत सम्मान की बात है। यहां तक कि इसमें सहभागी होना भी अपने आप में एक गौरवास्पद क्षण है।

ओलंपिक आदि जैसे प्रतिस्पर्धी खेल स्पर्धाओं को अक्सर ‘आंदोलन’ भी कहा जाता है, जिसकी अन्य विशेषताओं के साथ एक प्रमुख विशेषता यह भी होती है कि यहां भिन्न-भिन्न समाज परस्पर एक दूसरे के सांस्कृतिक तत्वों और मूल्यों को साझा भी करते हैं। लेकिन यह भी कोई छिपी बात नहीं कि सालों से आधुनिकीकरण, नवीनीकरण, वैश्वीकरण आदि की प्रक्रियाओं ने संपूर्ण विश्व को अपनी आगोश में ले रखा है। इसलिए खेल के संदर्भ में बाकायदा यह विचार करने की आवश्यकता है कि इन प्रक्रियाओं के फलस्वरूप हमारी प्राचीन और ऐतिहासिक कला, कौशल और क्रीड़ा गतिविधियां किस प्रकार प्रभावित या परिवर्तित होती रही हैं। इस संबंध में अधिक कुछ विवेचन करने से पूर्व खेल के व्यापक अर्थ को समझ लेना आवश्यक है।
शब्द और अभिप्राय
सामान्यत: ‘खेल’ शब्द बहुत ही बहुमुखी है। अलग-अलग लोगों के लिए इसके अलग-अलग अर्थ हैं। खेल शब्द का अंग्रेजी रूपांतरण ‘स्पोर्ट’ है। शाब्दिक दृष्टि से ‘स्पोर्ट’ को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह एक ऐसी गतिविधि है, जो मनोरंजन प्रदान करती है। लेकिन विगत सालों में पाश्चात्य शोधकर्ताओं द्वारा ‘स्पोर्ट्स’ को समझने और समझाने पर गहन अध्ययन किया गया है और इस शब्द की परिभाषा कई बार फिर से लिखी गई है। आज ‘स्पोर्ट’ की धारणा को संगठित, प्रतिस्पर्धात्मक, शारीरिक अभ्यास, दो या दो से अधिक पक्ष, सख्त नियम, विजेता निर्धारित करने के लिए मानदंड जैसे लक्षणों से अभिव्यक्तकिया जाता है।
प्रतिस्पर्धा की सदी
हालांकि, कुल मिलाकर इक्कसवीं सदी के तमाम अभ्यास जो प्रतिस्पर्धी खेलों के तहत खेले जाते हैं, प्राचीन कला, युद्ध तकनीक और अन्य स्थानीय अनुष्ठानों और प्रथाओं के पुन: संयोजन के रूप में ही आविष्कार किए गए हैं। लेकिन आज किसी अभ्यास या गतिविधि को ‘स्पोर्टिव’ के रूप में वर्गीकृत करने का तात्पर्य आधुनिक, सभ्य और नवीन विचारधाराओं से उनके संबंध की स्वीकृति भी है। ऐसे में अन्य खेली जाने वाली गतिविधियां जो इस मानदंड को पूरी नहीं करतीं, उन्हें कम प्रतिस्पर्धात्मक, कम विनियमित और इसी के साथ पूर्व-आधुनिक, अराजक और पिछड़े आदि के रूप में वर्णित कर उनसे मुंह मोड़ लिया जा रहा है। गौरतलब है कि यह प्रवृत्ति केवल पश्चिम में ही नहीं, बल्कि एशियाई देशों के संदर्भ में भी देखी जाती है।
जूडो को स्वीकृति
1964 में ओलंपिक में जूडो पहला गैर-पश्चिमी खेल था जिसे स्वीकृति मिली और प्रतियोगिता में खेला गया। लेकिन यह रातोंरात नहीं हुआ था। जूडो के ‘स्पोर्टिफिकेशन’ की प्रक्रिया का एक लंबा इतिहास है। इस संबंध में दो विशेष घटनाओं का उल्लेख करना समीचीन होगा। 1880 के दशक में कानो द्वारा जिउ-जित्सु आदि जैसी प्राचीन मार्शल कलाओं का पुनर्गठन कर, जूडो को एक संगठित प्रतिस्पर्र्धी खेल के रूप में विकसित किया गया।

समय के साथ, जब जूडो ने पुरातन कलाओं को प्राथमिकता दे दी, तो उसके वैश्विक विस्तार के लिए, पाश्चात्य खेलों की प्रक्रियाओं के समान एक विस्तृत आधारशिला बनाई गई।चूंकि जापान को आधुनिकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, जूडो का विस्तार सफल रहा। लेकिन 1946 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण, वैचारिक कारणों से अमेरिका द्वारा जूडो पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जब प्रतिबंध हटाया गया, तो पश्चिमी खेल लोकाचार के अनुसार जूडो को पुनर्विकसित किया गया। तदनुसार, एक प्रतिस्पर्धी खेल के तौर पर जूडो के आधुनिक रूप का विश्वव्यापी प्रचार और विस्तार आरंभ हुआ।
वुशु को बढ़ावा
आज ‘वुशु’ को चीनी मार्शल कला के रूप में संदर्भित कर बढ़ावा दिया जा रहा है। शाब्दिक दृष्टि से ‘वुशु’ शब्द का अर्थ ‘युद्ध कौशल’ है। विगत कई दशकों से चीनी सरकार और अंतरराष्ट्रीय वुशु महासंघ वुशु को ओलंपिक में प्रतिस्पर्धी खेल के रूप में मान्यता दिलाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यदि हम एक खेल के तौर पर वुशु का विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि यह प्राचीन मार्शल कलाओं को प्रतिबिंबित नहीं करता है। एक ओर, जहां वुशु के माध्यम से सांस्कृतिक विविधता को समृद्ध करने का प्रयास है तो दूसरी ओर, ओलंपिक मानकों के अनुपालन करने के प्रयास में आज वुशु एक आधुनिक प्रतिस्पर्धी खेल के रूप में महज एक मनोरंजक प्रदर्शन तक ही सीमित रह गया है।


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