मादक पदार्थों से संबंधित कानून में बदलाव लाया जाए

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हाल के कुछ वर्षों में भारत में मादक पदार्थों के बढ़ते उपयोग को लेकर चिंता और बहस, दोनों ही बढ़ गई है। सिनेस्टार सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद से इस पर और भी ऊँगली उठाई जाने लगी है। इसी संदर्भ में नारकोटिक ड्रग्स एण्ड साइकोट्रोपिक सब्सटेंसेस एक्ट की नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करने वाले राजस्व विभाग ने सामाजिक न्याय मंत्रालय से मंत्रणा की है। इसके परिणामस्वरूप मंत्रालय ने 2019 की अपनी रिपोर्ट में लिए गए सुझावों को दोहराया है। इन सुझावों की कुछ मुख्य बातें –

  • व्यक्तिगत उपयोग के लिए रखे गए नशीले पदार्थ को अपराध मुक्त करना।
  • उपयोगकर्ताओं (विशेष रूप से नशेडी) के प्रति दंडात्मक दृष्टिकोण के बजाय, पुनर्वास का दृष्टिकोण रखना।
  • इस रिपोर्ट के माध्यम से नशीले पदार्थों के उपयोग से प्रभावित लोगों के जीवन को बचाने और बेहतर बनाने में मदद करने के तरीके खोजने के लिए रणनीतिक दिशा प्रदान करना, तथा
  • नशीले पदार्थों के उपयोग से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिए साक्ष्य-आधारित नीतियों और रणनीतियों को तैयार करना।

दरअसल, भारत में तो पारंपरिक रूप से नशीले पदार्थों के सीमित सेवन के प्रति सहिष्णुता रही है। विक्टोरियन काल में चरस-गांजा पीने वाले साधु-फकीरों के प्रति संदेहात्मक दृष्टि रखी जाने लगी थी। इसके अलावा यूरोपीय सभ्यता की अपनी परंपराओं में नशीले पदार्थों के सेवन को हेय समझा जाता रहा है। अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने भारत पर लाद दिया।

अमेरिका में रीगन युग के राजनीतिक रूप से प्रेरित होकर 1985 का अधिनियम बनाया गया। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के माध्यम से नशीले पदार्थों की अवैध तस्करी को रोकने के लिए ड्रग्स के खिलाफ अभियान छेड़ा गया था। भारत को भी इसका हिस्सा बनना पड़ा।

अब जबकि अनेक देशों ने मादक पदार्थों में से कुछ के सीमित सेवन को उपचारात्मक मान लिया है, इसलिए भारत को भी इस पर नए नजरिए से विचार करना चाहिए।

‘द इकॉनिॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 25 अक्टूबर, 2021

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