दीपावली के दिन अमावस्या की अंधेरी रात जगमग असंख्य दीपों से जगमगाने लगती है।
कुछ लोग दीवाली पर जलाए जाने वाले दीयों की भूमिका को दूसरे नजरिए से देखते हैं। कई मान्यताएं हैं। घरों में तीन से चार दिन तक, अधिक से अधिक दीये जलाए जाते हैं। मान्यताएं तथा लोकगाथाएं अनेक हो सकती हैं, पर यह सच है कि हर साल दीपों का त्योहार पूरी श्रद्धा तथा धूमधाम से मनाया जाता है।
मानवीय प्रवृत्ति हर दिन कुछ नया और बेहतर करने की होती है, इसी नजर से देख कर दीपावली उत्सव को भव्यता से जोड़ा गया। इस क्रम में सबसे पहले दीपों की संख्या बढ़ी होगी। जब बारूद की खोज हुई तो मानव ने दीपोत्सव में आतिशबाजी और पटाखों को जोड़ा। रसायनशास्त्र ने आतिशबाजी और पटाखों में मनभावन रंग भरे और उन्हें अलग-अलग आवाजें दीं। इसी तरह पटाखे बनने शुरू हुए और उनमें विविधता आई। इसी विविधता से आकर्षण पैदा हुआ और पटाखों का उपयोग, समृद्धि दर्शाने का जरिया बन गया। सामाजिक परंपराओं ने पटाखों को विवाह समारोहों में खुशियों के इजहार का प्रभावशाली जरिया बना दिया है।
हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपए के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला दशहरे से शुरू होकर दीपावली के बाद भी कई दिन तक चलता रहता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं, तो कुछ इसे परंपरा से जोड़ कर देखते हैं। पटाखे शहरी, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैल्शियम, गंधक, एल्यूमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। इन धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं।
उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिए काफी बढ़ जाता है। देश के अनेक भागों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, जो भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, फिर भी पर्यावरण को और प्रदूषित कर देता है। पटाखों से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है, कई बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। अस्थमा के रोगियों, बच्चों और बुजुर्गों कोइससे बहुत तकलीफ होती है। मगर अपनी ही मस्ती में मस्त आज का आदमी इतना संवेदनहीन हो गया है कि उसे अपनी खुशी के सिवाय कुछ और महसूस ही नहीं होता।
हम सब जानते हैं कि मनुष्य ही इस संसार का सबसे विवेकवान प्राणी है इस नजर से संसार में पाए जाने वाले समस्त जीवों की रक्षा का दायित्व भी उसी का है। मगर अफसोस इस बात का है कि ज्यों-ज्यों मानव वैज्ञानिक प्रगति कर रहा है और विकास के सीढ़ियां चढ़ रहा है, त्यों-त्यों उसकी पर्यावरण चेतना भी कम होती जा रही है।
दिवाली पर जलाए जाने वाले पटाखों के प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2017-18 में हरित दिवाली स्वस्थ दिवाली कार्यक्रम की शुरुआत की थी। उस दौरान बड़ी संख्या में स्कूली बच्चों, इको-क्लब से जुड़े बच्चों ने इस अभियान में भाग लिया था और कम से कम पटाखे फोड़ने की शपथ ली थी। आइए इस बार हम संकल्प लें कि सादगीपूर्ण और प्रदूषण मुक्त दिवाली मनाएंगे और एक दीया प्रकृति के नाम पर जलाएंगे।
’प्रत्यूष शर्मा, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश
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