09-12-2021 (Important News Clippings)


Date:09-12-21

Real Cost Of MSP For All Crops

Money for the scheme can instead provide Rs 21k annually to every poor rural family

Arvind Panagariya, [ The writer is Professor of Economics at Columbia University. ]

Following the repeal of the three farm laws, demands for remunerating farmers for the entire output of all 23 crops for which the government currently announces minimum support prices (MSP) have become louder. This is a bad idea for at least four reasons.

First, the expansion of MSP would impose trillions of rupees worth of additional burden on the taxpayer in the forthcoming decade. Thus, consider first the implications for just rice and wheat, which currently account for the lion’s share of MSP payments.

Farmers sell only a fraction of their output of these crops in the marketplace, keeping the rest for self-consumption. In turn, the government procures at MSP a fraction of what is sold on the market. Based on the estimates provided by the latest Situation Assessment Survey of Agricultural Households, government procurement accounted for only 23.9% of the total output of rice and 20.8% of that of wheat in 2018-19.

With the current procurement already well in excess of storage capacity, the extension of MSP to all output would have to take the form of a deficiency payment. This would amount to a cash transfer to the farmer to the tune of the difference between the revenue calculated at MSP and that available in the open market at the market price. The amount will have to be calculated on the basis of hectarage devoted by the farmer to the crop, MSP and reasonable estimates of the average yield per hectare and the market price of rice or wheat.

Evidently, under full-MSP coverage, the deficiency payment would have to be made not just on the output the farmer sells in the market but also on that she keeps for self-consumption. This means that had the full coverage been available in 2018-19, output coverage under MSP that year would have been 4.2 and 4.8 times of the actual coverage in rice and wheat, respectively.

But the story does not end here. With price uncertainty fully eliminated for all farmers, MSP set above cost and political pressure almost certain to raise it annually, every farmer will increase her annual output through productivityenhancing measures. Yet more increases in output would come from a shift into wheat and rice from agricultural activities not covered by MSP.

These supply increases would lead to a progressive decline in the market price and a corresponding increase in deficiency payment per kilogram of output. Therefore, the total deficiency payment would rise over time due to not just a rise in output and MSP but also a fall in the market price. Add to this the fiscal burden of the extension of MSP to the entire output of the remaining 21 crops. With minuscule or no procurement currently, these crops offer considerable scope for output expansion and increase in deficiency payment over time.

The second problem that the extension of MSP poses is the shift into crops with MSP coverage and out of those without it. The result would be a reversal of ongoing diversification into such commodities as fruits and vegetables, increase in their prices over time and a setback to food processing in them.

Third, India’s MSP payments already violate the World Trade Organisation (WTO) rules on subsidies. A temporary peace clause on public stockpiling for food security has so far protected India from retaliatory actions by its trading partners against this violation. But the peace clause cannot provide it a cover against the deficiency payments since they would have nothing to do with stockpiling for food security. Nor would the extension of MSP to the numerous commodities that are not even a part of the public distribution system pass muster under the peace clause.

Finally, and perhaps most importantly, the shelling out of trillions of rupees worth of additional taxpayer money in the coming decades on MSP is bad use of public funds. The bulk of this money would end up in the pockets of large and better-off farmers rather than the rural poor, which is unconscionable.

The Situation Assessment Survey classifies only 54% of rural households as agricultural in 2018-19. Therefore, the proposed massive transfers under MSP would bypass not just the urban poor but also the landless rural poor among the 46% non-agricultural households. Furthermore, even within the 54% agricultural households, the transfers would be highly regressive. Only 29.5% of these households have land in excess of one hectare and only 11.8% in excess of two hectares. As a proportion of all rural households, agricultural households with more than one hectare land are 15.93% and those with more than two hectares just 6.37%.

A massive transfer programme that would largely benefit a small proportion of mostly well-off rural households would be not just unjust but immoral. Even if we conservatively assume that the extra payments under the proposed extension would average Rs 1.5 trillion per year over the next decade, should we not use those funds to make transfers to those in abject poverty? Spread evenly over the bottom 40% of rural households in 2018-19, such a vast amount would place Rs 21,700 annually in the hands of each household.


Date:09-12-21

एक नई संवैधानिक व्यवस्था की जरूरत

आर जगन्नाथन, (लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)

कुछ दिन पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश की उच्च न्यायपालिका को न्यायालयों में सुनवाई के दौरान ‘अत्यधिक सावधानी एवं संवेदनशीलता’ बरतने की सलाह दी। इससे पहले अगस्त मध्य में देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने कहा था कि ढीले-ढाले ढंग से तैयार कानूनों की व्याख्या करने में संवैधानिक न्यायालयों को कठिनाई होती है। इसका एक समाधान यही है कि कोई भी कानून तैयार करने से पहले संसद में इस पर बहस एवं पूर्ण चर्चा होनी चाहिए। इसका एक लाभ यह होगा कि न्यायापालिका उस संदर्भ को बखूबी समझ पाएगी जिसे ध्यान में रखकर संबंधित कानून बनाया गया है। पिछले एक वर्ष के दौरान तीनों नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों को जब अपनी बात रखने के लिए कहा गया तो उन्होंने उच्चतम न्यायालय की बात सुनने से इनकार कर दिया।

ऐसे मामले यदा-कदा सामने नहीं आते हैं और एक दूसरे से अलग भी नहीं होते हैं। ऐसे उदाहरण राज्य के अंगों-कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक वर्ग एवं विभिन्न संबंधित पक्षों सहित आम लोगों में गहरी निराशा के परिचायक हैं। हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और इसके विभिन्न घटक जिस तरह से काम कर रहे हैं उनसे कोई भी संतुष्ट नहीं है। जब हमारा संविधान तैयार हुआ था तो इसे एक क्रांतिकारी और उदार सिद्धांतों का एक उम्दा उदाहरण माना गया था। समय के साथ इसमें बदलाव का भी पर्याप्त प्रावधान था। मगर अब यह उस तरह काम नहीं कर रहा है जिस तरह से उसे करना चाहिए। अगर 1949 में तैयार हुए संविधान में 72 वर्षों में 105 संशोधन की जरूरत होती है और सातवीं अनुसूची में 280 से अधिक कानून के वर्णन से न्यायपालिका को इनकी विवेचना में कठिनाई पेश आती है, साथ ही सड़क पर बैठेलोग कानून में बदलाव का कारण बन जाते हैं तो निश्चित तौर पर हमें संविधान बदलने की जरूरत आन पड़ती है। अमेरिकी संविधान को अस्तित्व में आए लगभग ढाई सौ वर्ष पूरे हो गए हैं मगर इसमें अब तक कुल 27 संशोधन ही किए गए हैं। भारत में हरेक तीन वर्षों में दो बदलाव करने पड़ रहे हैं। यह शायद ही स्थिर राजनीति के लिए अनुकूल है।

आखिर भारतीय संविधान में किस तरह की त्रुटियां हैं? यह तो सभी पहले से ही जानते हैं कि यह भारत की वास्तविकताओं को परिलक्षित नहीं करता है। एक बात तो साफ दिख रही है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका सहित राज्य के विभिन्न अंगों एवं लोकतंत्र में सबसे अधिक शक्तिशाली जनता के बीच आपसी समन्वय का नितांत अभाव है। मसलन न्यायपालिका को इतनी अधिक ताकत मिली है कि वह संविधान का उल्लंघन नहीं करने वाले कानून को भी निरस्त कर सकती है, वहीं कार्यपालिका विधायिका पर भारी पड़ती है। इसी तरह, राज्यों की तुलना में केंद्र को कहीं अधिक आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं और इसी तर्ज पर राज्यों के पास स्थानीय निकायों से अधिक ताकत है। संक्षेप में कहें तो लोकतंत्र के इस वृक्ष की जड़ कमजोर है।

इसका नतीजा यह है कि राज्य का कोई भी अंग दूसरे अंग को उत्तरदायित्व का निर्वहन करने से रोक सकता है और इनमें कोई भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल वैध एवं प्रभावी तरीके से नहीं कर सकता है। न्यायपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकती है मगर यह कार्यपालिका को परोक्ष रूप से ऐसी नियुक्तियों को प्रभावित करने से नहीं रोक सकती है। जब उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान निरस्त कर दिया तो कार्यपालिका ने अब नियुक्ति में देरी कर कुछ नियुक्तियों पर हामी नहीं भरने का अधिकार हासिल कर लिया है। न्यायपालिका अनुच्छेद 142 के तहत कानून भी बना सकती है मगर इसके क्रियान्वयन के लिए उसे राज्य के संसाधनों की जरूरत होगी और वह संसाधन कार्यपालिका ही दे सकता है। इसी तरह, विधायिका को कानून बनाने का अधिकार है मगर सामाजिक दबाव एवं सड़क-नुक्कड़ पर हो रहे विरोध प्रदर्शन के कारण यह उपयुक्त कदम नहीं उठा पाती है। देश के ज्यादातर हिस्सों में गोहत्या पर पाबंदी के बावजूद गायों की तस्करी और इसके प्रत्युत्तर में हो रही हिंसा इसका एक उदाहरण है।

पिछले कई वर्षों से देश का शीर्ष न्यायालय किसी बड़े संवैधानिक मामले पर निर्णय नहीं ले पाया है। सबरीमला समीक्षा से लेकर अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून से लेकर अंतर-राज्यीय विवाद (कावेरी विवाद) का कोई हल नहीं निकल पाया है। न्यायालय ने राज्यों को मंदिरों के नियंत्रण से दूर रहने के लिए कहा है मगर इन निर्देशों का कभी पालन नहीं हुआ है। 2018 में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि एससी/एसटी कानून का इस्तेमाल मनमाने ढंग से लोगों को गिरफ्तार करने के लिए नहीं किया जा सकता है। मगर इस निर्णय पर राजनीतिक गलियारों में इतना शोरगुल हुआ कि संसद ने यह आदेश पलट दिया और बाद में न्यायालय ने भी संसद के इस कदम पर अपनी मुहर लगा दी। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस सुधार के निर्देश दिए हैं मगर ज्यादातर राज्यों ने इसे लागू नहीं किया है। सरल शब्दों में कहें तो राज्य के सभी अंगों ने संविधान के प्रावधानों के क्रियान्वयन से अधिक इन्हें निष्प्रभावी करने के तरीके अपनाए हैं। राज्य के सभी अंगों के पास एक दूसरे के अधिकारों पर कैंची चलाने का अधिकार है मगर किसी के पास कोई कानून प्रभावी रूप में क्रियान्वित एवं उसे लागू करने का अधिकार नहीं है। अब इन परिस्थितियों में कानून बनाने का अधिकार सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को मिल जाए तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है। किसानों के प्रदर्शन ने उच्चतम न्यायालय की कार्य शैली को भी प्रभावित किया है। शीर्ष न्यायालय ने किसी भी पक्ष की बात सुने बिना कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। शक्ति में ऐसे असंतुलन केवल कानून में बदलाव या संविधान में संशोधन कर दुरुस्त नहीं किए जा सकते हैं।

सभी लोगों के प्रतिनिधित्व वाली एवं एक समावेशी समिति को शायद संविधान पर व्यापक विचार करना चाहिए और उसके बाद सामने आए प्रस्तावों पर नव नियुक्त संविधान सभा या फिर स्वयं संसद को विचार करना चाहिए। नए संविधान के लिए कम से कम 80 प्रतिशत से अधिक मतदान का प्रावधान होना चाहिए। खासकर, कुछ विशेष विषयों में तो अवश्य बदलाव किया जाना चाहिए। पहली बात, समवर्ती सूची समाप्त की जानी चाहिए और ज्यादातर अधिकार राज्यों को देकर कुछ अधिकार ही केंद्र को दिए जाने चाहिए। स्थानीय

निकायों के लिए एक अलग अनुसूची बननी चाहिए ताकि राज्य उनके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर पाएं। लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए स्थानीय निकाय सर्वाधिक उपयुक्त स्थान हैं मगर इस समय सरकारी संरचना का यह सबसे कमजोर हिस्सा है। न्यायपालिका और राज्य के बीच अधिकारों के आवंटन पर भी विचार होना चाहिए। न्यायपालिका को कानून बनाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। उच्च न्यायपालिका का विभाजन कर एक शीर्ष अपील न्यायालय और संवैधानिक न्यायालय का गठन होना चाहिए। जनहित याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार केवल संवैधानिक न्यायालय को होना चाहिए। इन याचिकाओं पर निर्णय उसी स्थिति में होना चाहिए जब ये मूल रूप से कानून से संबंधित हों। इन दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण की रोकथाम के लिए एसयूवी के प्रवेश पर रोक लगाने या फिर केंद्र की टीकाकरण नीति की समीक्षा करने के लिए भी लोग एवं विभिन्न संगठन जनहित याचिकाएं दायर करने लगे हैं। स्थानीय स्तर पर त्रि-स्तरीय राज्य संरचना का अधिकतम इस्तेमाल होना चाहिए ताकि वे स्वयं से जुड़े महत्त्वपूर्ण विषयों पर वे मुखर होकर अपनी बात कह सकें।


Date:09-12-21

अनुपस्थित जनप्रतिनिधि

संपादकीय

प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थिति के मसले पर भले भाजपा के सांसदों को सलाह दी है, लेकिन उनकी बातें सभी दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के लिए अहम मानी जानी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि लोकसभा या राज्यसभा में सदस्य के तौर पर चुने जाने के बाद बहुत सारे सदस्य संबंधित सदन में नियमित तौर पर उपस्थित होना बहुत जरूरी नहीं समझते। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब सदन में सभी सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित होती हो। ऐसे मौके आम होते हैं, जब सदन में बहुत कम सदस्य मौजूद होते हैं और इस बीच वहां कई जरूरी काम निपटाए जाते हैं।जरूरत के संदर्भ में छुट्टी पर होने या अपने क्षेत्र में कोई अनिवार्य काम निपटाने की वजह से अनुपस्थित होने के पीछे एक तर्क है, लेकिन बिना किसी महत्त्वपूर्ण वजह के गैरहाजिर होना अगर एक प्रवृत्ति बनती है तो यह न सिर्फ संसद के कामकाज में सभी पक्षों की भागीदारी को कमजोर करेगा, बल्कि इसे जनता के नुमाइंदों के अपनी जिम्मेदारी से बचने के तौर पर भी देखा जा सकता है। मुश्किल से हासिल की गई सदस्यता के बाद सदन की कार्यवाही में शामिल नहीं होने का खमियाजा आखिरकार जनता को उठाना पड़ता है।

प्रधानमंत्री ने भाजपा सांसदों के बहाने एक तरह से सदन से बेवजह अनुपस्थित रहने की इसी प्रवृत्ति पर टिप्पणी की है। भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्होंने सांसदों की गैरहाजिरी को जिस तरह गंभीरता से लिया, उसकी अपनी अहमियत है। इसके लिए उन्होंने साफ लहजे में हिदायत दी कि वे खुद में बदलाव लाएं, नहीं तो बदलाव वैसे ही हो जाता है। प्रधानमंत्री की इस बात में जरूरी संदेश छिपे हो सकते हैं, मगर इतना साफ है कि अगर सांसद अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं होते हैं तो लोकतंत्र में जनता ऐसे नेताओं का भविष्य तय करती है।सवाल है कि लोकसभा या राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद सांसदों को यह अलग से बताए जाने की जरूरत क्यों होनी चाहिए कि सदन में मौजूदगी उनका दायित्व है! इस जिम्मेदारी को उन्हें खुद क्यों नहीं महसूस करना चाहिए? इसलिए प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी का संदर्भ भी समझा जा सकता है कि बच्चों को बार-बार टोका जाता है तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता है। जाहिर है, यह सांसदों के लिए थोड़ी कड़वी घुट्टी है, मगर उनकी कमियों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश भी है।

दरअसल, वह महत्त्वपूर्ण विधेयकों के सूचीबद्ध होने का मामला हो या अन्य जरूरी समकालीन मुद्दों पर विचार-विमर्श या बहस का, अनेक मौकों पर यह देखा जाता है कि बहुत कम सांसदों की उपस्थिति में सदन की कार्यवाही चलती रहती है। ऐसे में किसी भी मुद्दे पर अलग-अलग पक्षों के साथ विचार-विमर्श नहीं हो पाता है। जबकि हमारे देश की राजनीतिक-सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर देखें तो यह जरूरी है कि संसद की कार्यवाही और वहां तय होने वाले नियम-कायदों, बनने वाले कानूनों में जरूरी विविधता की झलक मौजूद रहनी चाहिए।अगर कोई विधेयक बिना बहस के पारित होता है तो संभव है कि भविष्य में उसके एकपक्षीय होने या संबंधित समुदाय या वर्ग का पक्ष मौजूद नहीं होने की शिकायत उभरे। इसके अलावा, सदन के संचालित होने का जो दैनिक खर्च आता है, उसका बोझ आखिरकार जनता को उठाना पड़ता है। फिर जिस केंद्र से देश को चलाने के लिए नीतिगत फैसले होते हों, उसमें जनप्रतिनिधियों की भागीदारी यों भी एक जरूरी दायित्व है। सदन का काम मुख्य रूप से जनप्रतिनिधियों के जरिए ही पूरा होता है, इसलिए इसकी अहमियत भी समझी जानी चाहिए।


Date:09-12-21

गरीबी में बढ़ते अमीर

संपादकीय

भारत ऐसा गरीब और आर्थिक असमानता वाला देश है जहां अधिक संख्या में धनवान आबाद हैं। ऐसा देश है जहां गरीबों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है‚ वहीं अमीरों की अमीरी भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है। मंगलवार को जारी ‘विश्व असमानता रिपोर्ट–2022’ में यह बात कही गई है। विश्व के सौ जाने–माने अर्थशास्रियों ने देशों की आर्थिक असमानता का अध्ययन करके यह रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट की विशेषता यह भी है कि पहली बार इसमें लैंगिक आय असमानता के आंकड़े भी दिए गए हैं। भारत में लैंगिक असमानताएं बहुत ज्यादा होने के कारण लैंगिक आय असमानता को रिपोर्ट में शामिल किया जाना महवपूर्ण कहा जा सकता है। रिपोर्ट की प्रस्तावना नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्री अभिजित बनर्जी ने लिखी है। रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में आजादी से पहले के समय में आर्थिक असमानता ज्यादा थी। अंग्रेजों के राज में 1858 से 1947 के बीच असमानता ज्यादा थी। तब 18 प्रतिशत लोगों का 50 प्रतिशत आमदनी पर कब्जा था। लेकिन आजादी के पश्चात पंचवर्षीय योजनाएं शुरू होने पर यह आंकड़ा कम होकर 35–50 प्रतिशत पर आ गया। कहना न होगा कि पंचवर्षीय योजनाओं का महत्त्व 1991 में उदारीकरण का दौर आरंभ होने के बाद घटने लगा। यहीं से अमीरों की संख्या में भी इजाफा होना शुरू हो गया। लेकिन निम्न मध्यम के साथ ही गरीबों की स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आ पाया। वैसे 1980 के दशक से ही विश्व के तमाम देशों में आमदनी और संपत्ति की असमानता बढ़ने लगी थी। इसके बड़े कारण रहे–बढ़ता उदारीकरण और विनियमन का क्रियान्वयन। अमेरिका और रूस में तेजी से उदारीकरण और विनियमन कार्यक्रम क्रियान्वित किए गए जबकि चीन‚ यूरोपीय देश और भारत में इनकी रफ्तार बनिस्बत कम तेज थी। बहरहाल‚ यह रिपोर्ट इस तथ्य की पुष्टि करती है कि नियोजित विकास को दरकिनार किए जाने के नुकसान ज्यादा हैं। जरूरी है कि तमाम तबकों की आय और संपत्ति बढ़ाने के लिए विनियोजित योजनाओं के जरिए विकास की अवधारणा को न बिसराया जाए। कहने में गुरेज नहीं है कि उदारीकरण और विनियमन कमजोर तबकों को प्रतिस्पर्धा में हाशिये पर धकेल देता है‚ और समावेशी विकास की बात बेमानी लगने लगती है।


 

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