गुट निरपेक्ष आंदोलन के साठ वर्ष

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इस वर्ष गुट निरपेक्ष आंदोलन की शुरूआत हुए साठ वर्ष हो चुके हैं। शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और रूस ने नाटो और वारसा जैसे गुटों का निर्माण कर लिया था, और विश्व के कई देश इन गुटों की सदस्यता प्राप्त कर रहे थे। इस दौरान भारत सहित कुछ देशों ने अमेरिका व सोवियत संघ के बीच किसी भी तरह के संघर्ष से दूर रहकर विकास पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से गुटनिरपेक्षता को अपनी विदेश नीति का हिस्सा बनाया था।

एक विश्व और स्वतंत्र भारत का विचार –

भारतीय स्वतंत्रता के प्रतीक महात्मा गांधी ने अहिंसक समाधान और आध्यात्मिकता में विश्वास रखा। यह भारत में मानवहित के लिए चलाया जा रहा एक ऐसा मिशन था, जो विश्व राजनीति में नवाचार करने की नेहरू की इच्छा और उनकी आधुनिकता की धारणा के साथ अच्छी तरह से मेल खाता था।

भारतीय गुटनिरपेक्ष की वैचारिक नींव नेहरू के आदर्शवाद के साथ शुरू और समाप्त हुई। वे शीत युद्ध में दोनों पक्षों द्वारा नियमों के उल्लंघन के विरूद्ध थे। इतना ही नहीं वे सन् 1954 से पाकिस्तान को अमेरिकी हथियार दिए जाने और एशिया में पश्चिमी देशों के सैनिक ठिकानों के भी घोर विरोधी थे।

भारत की राजनयिक उपस्थिति को बढ़ावा देने के लिए गुटनिरपेक्षता सबसे सुविधाजनक नीति थी। इस दौरान भारत कमजोर था, और दोनों ही गुटों की सहायता का आकांक्षी था। ऐसी स्थिति में नेहरू का यह दृष्टिकोण परिपक्व था।

भारत ने इस समय उपनिवेशवाद और नस्लवाद के खिलाफ अकेले ही आवाज उठाई थी, क्योंकि 1960 तक कई अफ्रीकी देशों को स्वतंत्रता नहीं मिली थी।

भारत ने 1954 के जिनेवा शांति सम्मेलन में इंडोचाइना पर सुत्रधार की एक आश्चर्यजनक भूमिका निभाई थी।

गुट निरपेक्ष आंदोलन की विफलता –

जब यूगोस्लाविया और मिस्र सभी बड़ी शक्तियों को धता बताकर गुट निरपेक्ष हो गए और 1961 में इसके शिखर सम्मेलन का आयोजन किया, तब नेहरू भी उनके सह-प्रायोजक बन गए थे। सिद्धांततः गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का गठबंधन या आंदोलन एक विरोधाभास था। इस आंदोलन के सदस्यों में अलग-अलग गठबंधनों की भरमार थी। सदस्यों के बीच सामूहिक कार्रवाई की कमी और सामूहिक आत्मनिर्भरता का अभाव था।

नेहरू की मृत्यु के साथ ही उनके आदर्शवाद का अपक्षय देखा गया। इंदिरा गांधी ने व्यावहारिकता को अपनाया।

निष्कर्षतः प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय संस्था का एक सीमित दौर होता है। इसके पश्चात् वे उपेक्षित ही पड़े रह जाते हैं।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित कृष्णन् श्रीनिवासन के लेख पर आधारित। 13 नवम्बर, 2021

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