मायाजाल हैं, चुनावी वायदे

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक आ गये हैं। ऐसे में, राजनीतिक दलों ने रियायतों के साथ मतदाताओं को लुभाने के सभी दांवपेंच आजमाने शुरू कर दिए हैं। इस होड़ में कोई भी पार्टी पीछे नहीं है।

इस प्रकार के लोकलुभावनवाद को कुछ मामलों में सकारात्मक कहा जा सकता है। पी एम किसान योजना में नकद हस्तातंरण को वास्तविक सहायता का रूप माना जा सकता है। इसी प्रकार से तमिलनाडु की अम्मा कैंटीन है। लेकिन अधिकांश मामलों में दी गई नकदी का बहुत कम सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, छात्राओं को दिए जाने वाले नकद की तुलना में दिए गए अन्य शिक्षा विकल्प अधिक मदद कर सकते हैं।

कई मुफ्त उपहारों का व्यापक रूप से विकृत प्रभाव पड़ता है। 1996 में, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री ने ट्यूबवेल मालिकों के लिए मुफ्त बिजली का वायदा किया था। हालांकि इसने उनकी जीत में मदद नहीं की, लेकिन एक ऐसी नीति की शुरूआत जरूर कर दी, जिसने भूजल को तेजी से कम कर दिया। धान की खेती को प्रोत्साहित किया और न केवल कृषि अर्थव्यवस्था बल्कि वायु गुणवत्ता और विद्युत डिस्कॉम की व्यवहार्यता को भी खराब कर दिया।

दिल्ली में ‘आप’ दल की मुफ्त बिजली और पानी के प्रस्ताव का नकारात्मक प्रभाव कम है, परंतु अन्य राज्यों के पास ऐसे प्रलोभन के लिए कोष नहीं है। इसका परिणाम केंद्र से अधिक वित्तीय समर्थन की मांग के रूप में सामने आता है। हाल ही में कुछ राज्यों ने जीएसटी मुआवजा योजना को 2022 से शुरू होने वाले अगले पांच वर्षों के लिए विस्तारित करने को कहा है।

निष्कर्ष यह है कि जब नेता रियायतों का वादा करते हैं, तो अक्सर वित्तीय बाधाएं, सरकारों को नए करों को बढ़ाने के लिए मजबूर करती हैं। उत्तर प्रदेश का 2020-21 का पूंजीगत व्यय, बजटीय परिव्यय से 16% कम था, जो तनावपूर्ण वित्तीय स्थिति का निश्चित संकेत कहा जा सकता है।

अव्यवहार्य छूट देने वाले राज्य, अंततः नागरिकों को ही नुकसान पहुंचाते हैं। इस पर लगाम कसी जानी चाहिए, और नागरिकों को भी अपनी जागरूकता बढ़ानी चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 5 जनवरी, 2022

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