विश्वविद्यालयीन स्वायत्तता का प्रश्न

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किसी भी देश की उन्नति के लिए शिक्षा और स्वास्थ, दो मूलभूत आधार होते हैं। इनसे किया गया समझौता देश को अवनति के पथ पर ले जा सकता है। हाल ही में केरल सरकार में उच्च शिक्षा से जुड़े दो ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें राज्य सरकार ने दो प्रमुख विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति, निष्पक्षता से नहीं की है। इससे उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को लेकर उठने वाला प्रश्न एक बार फिर ज्वलंत हो गया है।

शिक्षा के क्षेत्र में केरल की स्थिति –

  • स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में कभी उत्कृष्ट माने जाने वाले केरल राज्य की स्थिति, उच्च शिक्षा क्षेत्र में लगातार गिरावट की ओर है।
  • नेशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क रैंकिंग के उच्च 20 संस्थानों में राज्य का कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है।
  • तीन साल पहले, केरल के शिक्षकों व शोधकर्ताओं की असफलता पर वैज्ञानिक सी.एन.राव ने खेद व्यक्त किया था। जबकि केरल में बौद्धिक व शैक्षिक गुणवत्ता की उत्कृषता की परंपरा रही है। इसके परिणामस्वरूप केरल से विदेश जाकर रोजगार प्राप्त करने वाले युवाओं की संख्या में कमी आई है।

कारण – शिक्षा क्षेत्र की नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप माना जा सकता है।

समाधान –

  • केरल सरकार ने जाने माने शिक्षाविदों के नेतृत्व में तीन आयोगों का गठन किया है, जो विश्वविद्यालयीन कानूनों, परीक्षा पद्धति और इस पूरे क्षेत्र में सुधार लाने का प्रयत्न करेंगे।
  • शैक्षणिक स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक, धार्मिक, जाति और अन्य विचारों पर योग्यता को प्राथमिकता देनी होगी।

केरल में लैफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार ने सत्ता में वापस आने पर अन्य विषयों के साथ उच्च शिक्षा में सुधार करने और समाज को ज्ञान-प्रधान बनाने का संकल्प लिया था। अब समय है, जब सरकार को अपना वायदा पूर्ण करना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित शरत बाबू जार्ज के लेख पर आधारित। 27 दिसम्बर, 2021

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