लोकतंत्र के लिए जरूरी ये सांस्कृतिक विवाद

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हाल ही में मनाई गई सुभाषचंद्र बोस की 125 वीं जयंती पर देश में एक विविध लोकतंत्र की झांकी मिली है। इस अवसर पर देशभर में विभिन्न दलों के नेताओं ने उन्हें श्रद्धाजंलि दी। इसके साथ ही इंडिया गेट पर बोस की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण और अमर जवान ज्योति का स्थानांतरण भारत के इतिहास पर बहस के नए दौर की शुरूआत करता हुआ प्रतीत होता है।

इसी कड़ी में बीटिंग रिट्रीट समारोह से गांधी के पसंदीदा ‘एबाइड विद मी’ को हटाकर ‘ए मेरे वतन के लोगों’ को शामिल किए जाने की आलोचना और प्रशंसा, दोनों ही की जा रही है। झांकियों के सिलसिले में दक्षिण भारतीय राज्यों द्वारा अलग तरह के आक्षेप किए जा रहे है।

विशेष – कुल मिलाकर, विपरीत पक्षों के सुझाव या निंदा करने वाले ट्वीट और ऐतिहासिक अर्थों पर वाद-विवाद किया जाना, कोई नई बात नहीं है, और न ही यह बुरा है। वरन यह एक विविधतापूर्ण लोकतंत्र के उबड-खाबड और उथल-पुथल मार्ग का हिस्सा है। इतिहास के अर्थों पर बहस, चर्चा या विवाद होना एक स्वस्थ जीवन का संकेत है। सत्ताधारी राजनीतिक दल अपने नायकों, मिश्रित ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को बढ़ावा देता है। लेकिन अपने मत से मतदाताओं को प्रभावित करते हुए सत्ता की तलाश करना लोकतंत्र की परिभाषित विशेषताओं में से एक है। इन सबके बीच कुछ लाल रेखाएं भी हैं, जिनका इस प्रकार के वाद-विवाद में सम्मान किया जाना चाहिए। अन्यथा ये तथाकथित सांस्कृतिक युद्ध केवल राजनीति की अभिव्यक्ति मात्र रह जाते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि देश के राजनीतिक दल, इस प्रकार के स्वस्थ वाद-विवादों से लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा करते रहेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 24 जनवरी, 2022

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