राज्यपालों की रेखाएं

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राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए कुछ समय से ऐसा लगने लगा है कि राज्यपालों की भूमिका और कार्यों को स्पष्ट करने का समय आ गया है। राज्यपालों और राज्य-सरकारों के बीच टकराव के अनेक संकेत मिल रहे हैं। टकराव के कुछ घटनाक्रमों के मद्देनजर उन राज्यपालों की नियुक्ति को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जो इस पद पर राजनीतिक रूप से सक्रिय रहते हुए केंद्र के एजेंट के रूप में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

न्यायिक टिप्पणी –

उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने 1974 में निर्धारित किया था कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग केवल कुछ असाधारण स्थितियों को छोड़कर, अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार करेंगे। स्थितियों को भी सूचीबद्ध किया गया है। फिर भी, कुछ राज्यपाल क्षमादान और विधेयकों को स्वीकृति देने के अनुरोध पर कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। ये स्थितियां असाधारण हैं।

संविधान की अस्पष्टता –

  • अधिकांश संघर्ष संविधान की अस्पष्टता से उत्पन्न हो रहे हैं। इसमें राज्यपालों के लिए कार्य पूरा करने की कोई समय सीमा तय नहीं है।
  • संविधान के अनुच्छेद 163 में राज्यपालों को अपने विवेक से कुछ निर्णय लेने या न लेने की असामान्य शक्ति दे दी गई है।
  • न्यायालयों को यह पूछने का अधिकार नहीं दिया गया है कि सलाह दी गई या नहीं, और अगर दी गई है, तो क्या सलाह दी गई।

संविधान की रक्षा और निर्वाचित शासन को प्रोत्साहित करना, राज्यपालों का कर्तव्य है। फिर भी, राज्य-कैबिनेट की सलाह को न माने जाने का मामला, कई राज्यों का हिस्सा बनता जा रहा है।

इस समय, क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें सक्रिय रूप से केंद्र द्वारा सुनवाई की मांग कर रही हैं। केंद्र को चाहिए कि वह राज्यपाल की भूमिका से संबंधित प्रावधानों में संशोधन का प्रयास करे। उनके विवेक-क्षेत्रों की पहचान करे, कार्य पूरा करने के लिए समय-सीमा तय करे और विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए कैबिनेट की सलाह के अनुसार चलने के लिए बाध्य करे।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 3 मार्च, 2022

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