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भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत सरकार के प्रति घृणा, अवमानना और नाराजगी को भड़काने वाले शब्दों या कार्यों पर तीन साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इसी के अंतर्गत देशद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है। हाल ही में इस धारा को खत्म करने की मांग को लेकर उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई शुरू की है।
कुछ बिंदु –
- यह कानून औपनिवेशिक काल का है। इसके अंतर्गत ब्रिटिशों ने तिलक और महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को लंबे समय तक जेल में रखा था।
- इस धारा में देशद्रोह का प्रमाण माने जाने वाले ‘घृणा’, ‘अवमानना’ और ‘असंतोष’ ऐसे व्यापक वाक्यांश हैं कि वैध आलोचना या असहमति पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों असंतुष्टों को देशद्रोह के झूठे आरोप में फंसाया गया है।
- ब्रिटिश काल में क्राउन के विरूद्ध बयानों और राजनीतिक लेखन पर जिस प्रकार यह धारा लगाई जाती थी, वैसे ही आज की सरकारें विचारों और शब्दों पर मुकदमा चलाने की रणनीति की दोषी हैं।
- सन् 1962 के केदारनाथ सिंह वाले मामले में न्यायालय ने देशद्रोह को सार्वजनिक अव्यवस्था या राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालने के ‘इरादे’ और ‘प्रवृत्ति’ तक सीमित करने का प्रयास किया था। छह दशक बाद भी इस निर्णय का पुलिस या सरकारों पर कोई संयमित प्रभाव नहीं पड़ा है।
- देशद्रोह कानून को बनाने वाले ब्रिटेन ने भी सन् 2009 में इसे हटा दिया है।
देशद्रोह की निजी शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। यह संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है। इसके अंतर्गत शिकायत दर्ज करके कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे का जीवन नरक बना सकता है, जो उससे दूर से भी संबंधित न हो। भारत जैसे उदार लोकतंत्र में ऐसे कानून को बनाए रखने या सुधारने का कोई अर्थ दिखाई नहीं देता है। अतः उच्चतम न्यायालय को इसे खत्म करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 28 अप्रैल, 2022
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