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भारतीय रुपए की कीमत तेजी से नीचे गिर रही है। रिजर्व बैंक इस गिरावट को संभालने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार के गिरते स्तर को धीमा करने का प्रयत्न कर रहा है। भारत जैसे ऊर्जा-आयात करने वाले देश के लिए यह ऐसा झटका है, जो अपेक्षित था।
भारत में आर्थिक गतिविधि अभी तक महामारी पूर्व के स्तर तक नहीं पहुंची है, और ऊर्जा आयात के विकल्प का दायरा सीमित है। ऐसी स्थितियों में दो सिद्धांत काम कर सकते हैं-
- रूपये की गिरावट को चलने दिया जाए, और इसे अपने स्तर का पता लगाने दिया जाए। सख्त मौद्रिक नीति से मुद्रास्फीति में गडबड़ और धीमी वृद्धि होगी। इससे आयात प्रभावित होगा, और व्यापार संतुलित हो जाएगा।
- विनिमय दर को कम किया जा सकता है। इससे निर्यात में वृद्धि और आयात में कमी आएगी। इसके लिए घरेलू उत्पादन को अत्यधिक संकुचित नहीं किया जाना चाहिए।
ये दोनों ही सिद्धांत कारगर हो सकते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि एक मौद्रिक संकुचन का उपयोग करता है, जबकि दूसरा विस्तारवादी है।
आदर्श स्थिति क्या हो सकती है ?
भारत की नीति में मध्य मार्ग को जगह मिलने की उम्मीद है। इसमें ब्याज दर अमेरिका की तुलना में धीमी रखी जा सकती है, और रूपये के मूल्य में गिरावट को संतुलित रखा जा सकता है।
इस संकट के बीच सवाल उठ रहे हैं कि क्या कमजोर रूपये से भारतीय माल के निर्यात में मदद मिल सकती है ?
इस प्रश्न का उत्तर कुछ निम्न आधारों पर निर्भर करता है –
- अगर प्रतिस्पर्धी देश भी अपनी मुद्रा में अधिक गिरावट की अनुमति देते हैं, तो भारत के लिए निर्यात को बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
- लेकिन भारत के पास प्रौद्योगिकी सेवा निर्यात में अपार संभावनाएं हैं।
आरबीआई के पास अब मुक्त पूंजी संचलन (फ्री कैपिटल मूवमेंट) के साथ ब्याज और विदेशी मुद्रा दरों के प्रबंधन के आर्थिक संकट से निपटने के तरीके हैं और वह थोड़े संकुचन और थोड़े विस्तार के साथ स्थिति को संभाल सकता है।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 11 मई, 2022
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