राज्यपाल, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच स्पष्टता का प्रयास

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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोष में 31 वर्षों से सजा काट रहे पेरारिवलन की समय से पहले रिहाई के आदेश दिए हैं। 18 मई को दिया गया यह निर्णय न्यायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ ही केंद्र-राज्य संबंधों में भी महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। इसके माध्यम से राज्यपाल की शक्ति के दायरे में अस्पष्टता को कुछ हद तक दूर किया जा सका है

कुछ बिंदु –

उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल की संविधान की व्याख्या और कानून को चार मुख्य बिंदुओं पर गलत बताया है –

  1. अनुच्छेद 161 के तहत छूट की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य-कैबिनेट की सलाह के साथ राज्यपाल को बाध्यकारी माना गया है
  1. राज्यपाल के द्वारा इन शक्तियों का प्रयोग न करने या देरी करने के कारण वह न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
  1. बाद में कैबिनेट की सिफारिश का राज्यपाल द्वारा दिया गया संदर्भ, संवैधानिक समर्थन नहीं रखता।
  1. राज्यपाल द्वारा मामले को राष्ट्रपति के लिए ‘संदर्भित’ या ‘रेफरेन्स’ करना गलत है, क्योंकि अनुच्छेद 161 के तहत भारतीय दंड संहिता 302 के अधीन मामलों में शक्तियों को खत्म करने के लिए संविधान द्वारा भारत सरकार को कोई व्यक्त कार्यकारी शक्ति प्रदान नहीं की गई है।

राजनीतिक रूप से यह सभी की जीत है। अन्नाद्रमुक ने राज्यपाल को सभी प्रमुख सिफारिशें भेजी। द्रमुक ने केंद्र सरकार के राज्य की शक्तियों को कम करने के हर प्रयास को विफल कर दिया। भाजपा ने न्यायालय में आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात रखी और राज्यपाल ने संवैधानिक अनिवार्यता में देरी करने की पूरी कोशिश की।

कुल मिलाकर न्यायालय ने राज्यपाल के संवैधानिक अनुमोदन के साथ, राज्य सरकारों की क्षमा करने, छूट देने या सजा को कम करने की संप्रभु कार्यकारी शक्ति को संतुलित करने का प्रयास किया है।

द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 19 मई, 2022

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