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हाल ही में कुछ ऐसी घटनाएं देखने में आई हैं, जिनमें राजनीतिक प्रतिशोध के एक साधन के रूप में पुलिस बलों का उपयोग किया गया है। पिछलें दिनों चले एक घटनाक्रम में दिल्ली के मुख्यमंत्री के खिलाफ ट्वीट के लिए दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता बग्गा को आम आदमी पार्टी ने दंडित करना चाहा। दूसरी ओर, भाजपा उन्हें हिरासत से मुक्त कराने में लगी रही। इसमें हरियाणा, पंजाब और दिल्ली के पुलिस बलों का आमना-सामना हो गया है। राज्य पुलिस बलों की ये आपस की खींचा-तानी एक खतरनाक भविष्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
इस प्रकार की एक घटना और हुई है, जब गुजरात से असम पुलिस ने मेवाणी की गिरफ्तारी की। चिंता की बात यह है कि इन घटनाओं के साथ ही विभिन्न राज्य पुलिस बलों ने प्रक्रिया और आपसी शिष्टाचार को धता बता दिया है, जो कि पुलिस बल के संगठनात्मक ढांचे का हिस्सा रहा है।
चिंतित करने वाले इन घटनाक्रमों से कुछ निम्न बिंदु उभरकर आते हैं –
- आपराधिक प्रक्रिया संहिता में ऐसे उपाय हैं, जिससे पुलिस बलों की अपनी सीमा का निर्धारण होता है। इसके अंतर्गत किसी अन्य अधिकार क्षेत्र में गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट से ट्रांजिट रिमांड लेना होता है। हाल के मामलों में ऐसा नहीं किया गया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों में स्पष्ट है कि किसी अन्य अधिकार क्षेत्र में की जाने वाली गिरफ्तारियों के लिए स्थानीय पुलिस अधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिए। हालांकि ये नियम अपवाद की स्थिति को स्वीकार करते हैं, लेकिन इनका पालन करने पर पंजाब पुलिस को शर्मिंदगी से बचाया जा सकता था।
- पुलिस बलों के बीच आमना-सामना, केवल उन अपराधियों के लिए अच्छी खबर हो सकती है, जो राज्य की सीमाओं के आर पार फैले हुए अपराध करते हैं, या अपराध करने के बाद दूसरे राज्य में भाग जाते हैं।
- अंतर-बलों की अस्थिरता बढ़ने से समन्वय और खुफिया सूचनाओं की साझेदारी प्रभावित होती है। आतंकवादी और नक्सली, दोनों ही अभी तक इन स्थितियों का लाभ उठाते आए हैं।
भारत की अतिस्पर्धी राजनीति और कड़वी बयानबाजी को प्रभावी बनाने के लिए अगर पुलिस का इस्तेमाल किया जाता रहा, तो भविष्य और भी धूमिल हो सकता है। अतः राजनीति से प्रेरित राज्य पुलिस बलों के बीच गतिरोध को खत्म किया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 10 मई, 2022
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