प्रतिबंधों का पाखंड  

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यूक्रेन पर आक्रमण के बाद रूस के खिलाफ लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद से दो परिणाम स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ की शुरूआती उम्मीदों के अनुरूप रूसी तेल एवं गैस के निर्यात को नहीं रोका जा सका है। दूसरे, रूस के ऊर्जा क्षेत्र को पंगु बनाने के लिए यूरोपीय संघ अपने देशों को एक साथ नहीं रख पा रहा है।

इससे यह पता चलता है कि भारत जैसे देशों पर रूसी तेल एवं गैस के आयात का पश्चिमी दबाव गलत ही था। इससे पहले अमेरिका ने ईरान पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए थे, जिसके मूल उद्देश्य को 50 वर्षों बाद भी प्राप्त नहीं किया जा सका है। ऐसे प्रतिबंधों से अन्य असंबंधित देशों को होने वाली अप्रत्यक्ष क्षति को क्या उचित ठहराया जा सकता है ?

प्रतिबंधों के काम नहीं करने का एक बड़ा कारण यह भी हे कि इन राष्ट्रों और इनकी निजी फर्मों के पास प्रतिबंधों को दरकिनार करने के लिए एक शक्तिशाली आर्थिक प्रोत्साहन तंत्र होता है। दुनिया भर में फैली ईरान की ‘गुप्त वित्त व्यवस्था’ पर एक अमेरिकी मीडिया रिपोर्ट आ चुकी है। इसके अलावा मार्च में रूस, ओपेक समूह देशों का दूसरा सबसे बड़ा कच्चे तेल का आपूर्तिकर्ता बना रहा है।

अतः पश्चिमी प्रतिक्रिया में दोहरे मानकों की झलक मिलती है। इस मामले में भारत की नीति सही रही है। रूस का निरंतर ऊर्जा निर्यात इसे सही साबित कर रहा है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 3 जून, 2022

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