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‘प्रक्रिया एक सजा है’ यह एक ऐसी अभिव्यक्ति है, जिससे हम सभी परिचित हो गए हैं। हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने आपराधिक न्याय प्रणाली के मौजूदा संकट को अभिव्यक्त करने के लिए इसका उपयोग किया था। इसी भावना का अनुसरण करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अनुचित गिरफ्तारी, विचाराधीन कैदियों को बंदी बनाने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उल्लंघन की समस्या से निपटने के लिए कई गाइड लाइन जारी की हैं। इसने जमानत देने की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए एक ‘जमानत अधिनियम’ जैसे विशेष कानून के अधिनियम की सिफारिश की है। यह जमानत प्रणाली की कमियों को दूर करने में मदद कर सकता है –
- जमानत को एक सामान्य अधिकार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।
- जमानत को तभी खारिज किया जा सकता है। अगर न्यायालय को लगता है कि आरोपी आत्मसमर्पण करने में परेशान करेगा, अपराध कर सकता है या गवाहों पर अपना प्रभाव डाल सकता है।
- जमानत को सजा के रूप में अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
इस कानून से वे सभी विशेष कानून खत्म हो जाएंगे, जो जमानत हासिल करने कठिन बनाते हैं। इससे आपराधिक प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखा जा सकेगा। न्यायालय की सिफारिशों के अनुसार ही इस कानून में सरल प्रक्रियाओं का प्रावधान होना चाहिए। अति प्रभावी अभियोजकों और जांच एजेंसियों पर लगाम लगाना चाहिए। जमानत आवेदनों पर निर्णय लेने में न्यायिक विवेक की विसंगतियों को दूर करना चाहिए। और जमानत-आवेदनों को नियमित रूप से अस्वीकार करने वाले न्यायाधीशों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट लाई जानी चाहिए। ऐसा होने पर जमानत-आवेदनों की सुनवाई और जमानत देने के लिए सुप्रीम कोर्ट पर हमारी निर्भरता कम हो जाएगी।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित नेहा सिंघल और नवीद महमूद अहमद के लेख पर आधारित। 22 जुलाई 2022
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