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हमारे देश में सामाजिक पिछड़े वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण की सूची में जातियों की संख्या और आरक्षण का प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश में हाटी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का निर्णय लिया है। दूसरी ओर, सियासी परेशानियों में फंसी झारखंड सरकार ने ओबीसी आरक्षण की सीमा को 27% तक करने की घोषणा की है। यही नहीं, राजस्थान में गुर्जरों ने अनूसूचित जनजाति के लिए आंदोलन किया है, क्योंकि वहाँ की मीणा जनजाति को इससे लाभ प्राप्त हुआ है। महाराष्ट्र ने भी स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी कोटा के लिए उच्चतम-न्यायालय को मना लिया है। वहीं दक्षिण में तमिलनाडु ने इस संदिग्ध खेल में महारत हासिल कर ली है। झारखंड में अब 77% नौकरियां आरक्षित पूल में होगी। कई राज्य तो 100% आरक्षण की ओर बढ़ रहे हैं। इन सबके बीच में योग्यता के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है।
वास्तविकता क्या है?
- कई लोग आरक्षण को उच्च शिक्षा, रोजगार और आधिकारिक योजनाओं तक पिछड़े वर्ग की पहुंच को आसान बनाने के रास्ते के रूप में देखते हैं। वास्तव में यह अधूरा सच है, क्योंकि इससे सरकारी नौकरियों की संख्या, सरकारी शिक्षा संस्थानों में सीटें और यहां तक कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए भी बजट की कठिनाई का सामना करना पड़ता है। और मांग के सापेक्ष इन सबकी उपलब्धता कम होती जा रही है।
- जबकि पिछले तीन दशकों में भारत के सामाजिक-आर्थिक परिर्वतन के बारे में एक बड़ा सच यह है कि सुधारों ने लाखों लोगों को गरीबी से बारह निकाला है। हाल ही में आईएमएफ के एक अध्ययन ने अनुमान लगाया है कि भारत में अत्यधिक गरीबी इतिहास बन चुकी है। फिर भी सापेक्ष अभाव बने हुए हैं, और श्रम बाजार के निचले सिरे पर लगातार रोजगार की समस्या है। न ही उच्च शिक्षा में पर्याप्त सीटें हैं।
लेकिन आरक्षण इसका समाधान नहीं है। आरक्षण के लिए आंदोलन करने वाले सामाजिक समूहों को इस मूल तथ्य को समझना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 16 सितंबर, 2022
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