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उच्चतम न्यायालय ने बलात्कार पीड़ितों की फोरेंसिक जांच के समय किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट को बंद करने का एक बार फिर से आदेश दिया है। ज्ञातव्य हो कि यह परीक्षण 2013 में ही प्रतिबंधित किया जा चुका है। 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने विस्तृत दिशा निर्देश जारी करके इस परीक्षण को बंद करने की अपील की थी, क्योंकि इसका यौन हिंसा के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ता है। कई राज्यों ने इन दिशानिर्देशों और उच्चतम न्यायालय के आदेश को लागू नहीं किया। यही कारण है कि न्यायालय ने इस बार कड़ा कदम उठाते हुए फैसला सुनाया है कि इस परीक्षण को करने वाले कदाचार (मिसकन्डक्ट) के दोषी ठहराए जाएंगे।
परीक्षण जारी क्यों है ?
- बहुत से डॉक्टर ऐसे हैं, जो अपने क्षेत्र में होने वाले मौलिक निर्णयों और सरकारी दिशानिर्देशों से अनभिज्ञ रहते हैं।
- निचली न्यायपालिका और पुलिस को यह पता ही नहीं था कि आईटी अधिनियम की धारा 66, को 2015 में रद्द किया जा चुका है। वे इस धारा के अधीन अनेक मामलों को चलाते जा रहे थे।
2014 में स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशानिर्देशों में बलात्कार पीड़ितों की जांच के लिए चिकित्सा कर्मियों के प्रशिक्षित समूह और एक समान जांच पद्धति यानि एसएएफई (सैक्चुअल असात्ट फोरेन्सिक एवीडेन्स) किट से जांच करने की सिफारिश की थी।
टू-फिंगर परीक्षण के मामले में सरकार और न्यायालय दोनों को ही चुप नहीं बैठना चाहिए, और अपने दिए निर्णय एवं दिशा-निर्देशों की जमीनी वास्तविकता की जांच परख करनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर एक केंद्रीय कानून भी लाया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 01 नवंबर, 2022
The post टू-फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध लगाना ही पर्याप्त नहीं है appeared first on AFEIAS.
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