02-03-2023 (Important News Clippings)


Date:02-03-23

A message for maturity

Governors and Chief Ministers should respect constitutional boundaries

Editorial

Constitutional functionaries cannot let rancour prevail over propriety. This is the substance and import of the Supreme Court’s advice to the Governor and Chief Minister of Punjab that they should display mature statesmanship in handling their differences. Governor Banwarilal Purohit was indeed way out of line when he indicated that he would act on the Cabinet advice to convene the Budget session of the Punjab Assembly only after he obtained legal advice on the Chief Minister, Bhagwant Mann’s response to some of his earlier queries. This stand forced the Aam Aadmi Party (AAP) government to approach the Court against the apparent refusal to call the Assembly session. However, the matter was resolved without judicial intervention, as the Court was informed that the Governor had summoned the House to meet as scheduled on March 3. The position regarding the Governor’s power to summon the House under Article 174 of the Constitution is now well-known. Even though it says the Governor shall summon the House from time to time “to meet at such time and place as he thinks fit”, a Constitution Bench had, in Nabam Rebia (2016), ruled that the Governor can summon, prorogue and dissolve the House only on the aid and advice of the Council of Ministers. It is hardly likely that Mr. Purohit was unaware of this, but he must have taken such a position because of the state of relations between Raj Bhavan and the Chief Minister’s office.

The Court’s observations covered Mr. Mann’s questionable position too. In response to the Governor questioning the sending of some school principals to Singapore for training, he had replied that he was responsible only to the people of Punjab and not to a Governor appointed by the Centre. He was obviously wrong, as it is laid down in Article 167 that it is the Chief Minister’s duty “to furnish such information relating to the administration of the affairs of the State and proposals for legislation as the Governor may call for…”. It is unfortunate that such instances of one-upmanship between Governors and Chief Ministers are becoming more frequent in various States. Both should be mindful of constitutional boundaries. Some Governors seem to believe that they can stretch their discretion to areas not specifically mentioned in the Constitution. The more germane reason for this is that incumbents in Raj Bhavan tend to take their role as the eyes and ears of the Union government too literally, and often get into the political domain. While they can indeed guide, caution or advise, they sometimes play the role of commentator, critic and even the opposition. This does not augur well for constitutional governance.


Date:02-03-23

नगर नियोजन

संपादकीय

प्रधानमंत्री ने शहरी नियोजन, विकास और स्वच्छता पर एक वेबिनार को संबोधित करते हुए यह सही कहा कि तेजी से शहरीकरण के साथ भविष्य के बुनियादी ढांचे का निर्माण करना महत्वपूर्ण है। अच्छा हो कि इसकी महत्ता को शहरों का नियोजन करने वाले भी समझें, क्योंकि हमारे शहर अनियेजित विकास का पर्याय बन गए हैं। शायद इसी कारण प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ा कि शहरों का खराब नियोजन और योजना बनाने के बाद उस पर सही ढंग से अमल न करना हमारी विकास यात्रा के सामने बड़ी चुनौतियां पैदा कर सकता है। सच तो यह है कि खराब नियोजन ने पहले ही तमाम चुनौतियां पैदा कर दी हैं। इन्हीं चुनौतियों के कारण देश के छोटे-बड़े शहर गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। हमारे शहर कुल मिलाकर गंदगी, प्रदूषण, अतिक्रमण और अनियोजित विकास से उपजी अन्य समस्याओं से बुरी तरह जूझ रहे हैं। जो शहर जितना बड़ा है, वहां अनियोजित कालोनियों और झुग्गी बस्तियों की उतनी ही अधिक संख्या है। आम तौर पर ये कालोनियां और बस्तियां सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करके बसाई गई हैं। राज्य सरकारों और नगर निकायों में अवैध तरीके से बसाई गईं बस्तियों को खत्म करके उन्हें नियोजित तरीके से बसाने की इच्छाशक्ति ही नहीं दिखाई देती। इसी कारण जब-तब आधे-अधूरे मन से सरकारी जमीनों से अवैध कब्जे हटाने की कार्रवाई होती है। अधिकांशतः यह कार्रवाई किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने के पहले ही खत्म हो जाती है।

सभी इससे परिचित हैं कि आज के युग में शहर आर्थिक विकास के इंजन हैं, लेकिन उन्हें संवारने का काम न तो राज्य सरकारों की प्राथमिकता में दिखाई देता है और न ही उनके नगर निकायों के एजेंडे में। नए शहरों के विकास में तो तब भी बेहतर नगर नियोजन की इच्छा दिखाई देती है, लेकिन पुराने शहरों में पुरानी व्यवस्थाओं का समुचित आधुनिकीकरण किसी के एजेंडे में नजर नहीं आता। यह ठीक है कि इस वर्ष के आम बजट में शहरी विकास को महत्व दिया गया है और कई ऐसी योजनाएं लाई गई हैं, जिनसे शहरों की सूरत निखारी जा सकती है, लेकिन बात तो तब बनेगी, जब राज्य सरकारें इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए सक्रिय होंगी। कहने को तो शहरीकरण के मामले में हर तरह की योजनाएं बनी हुई हैं, लेकिन आम तौर पर वे कागजों तक ही सीमित हैं। शहरीकरण की योजनाओं पर मुश्किल से ही अमल होता है। आम तौर पर अमल के नाम पर खानापूरी ही अधिक की जाती है। नगर निकायों की कार्यशैली को देखकर इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि वे शहरों को संवारने के लिए प्रतिबद्ध हैं। शहर जिस तरह समस्याओं से घिरते चले जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह कहना कठिन है कि वे नगरीय जीवन को सुविधासंपन्न बनाने और देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने के लिए तत्पर हैं।


Date:02-03-23

शिकायत का हक

संपादकीय

आधुनिक तकनीकी के विस्तार के साथ अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले वक्त में कामकाज से लेकर बहुत सारी दूसरे क्षेत्रों में डिजिटल निर्भरता बढ़ने वाली है। खासतौर पर सूचना और संचार के संदर्भ में इंटरनेट तक लोगों की बढ़ती पहुंच ने दुनिया के दायरे को छोटा बनाया है और इसी मुताबिक विचारों की अभिव्यक्ति के नए फलक भी खोले हैं। सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच और उनके उपयोगकर्ताओं की तादाद में लगातार बढ़ोतरी से यह पता चलता है कि ज्ञान अर्जित करने से लेकर विचारों को जाहिर करने तक के लिए नए दरवाजे तो खुले हैं, मगर इसके साथ ही कई स्तरों पर जिम्मेदारी की भी जरूरत महसूस की जाने लगी है। दरअसल, सोशल मीडिया के मंचों ने अपने उपयोगकर्ताओं को अपने विचार जाहिर करने से लेकर अन्य गतिविधियों के लिए जगह तो मुहैया कराई है। लेकिन किसी अवांछित परिस्थिति के पैदा होने पर इसके लिए जिम्मेदारियों के निर्धारण की प्रक्रिया अब तक ठोस शक्ल नहीं ले सकी है। निश्चित तौर पर कुछ उपयोगकर्ता इसका बेजा इस्तेमाल करते हैं और ऐसे लोगों के खिलाफ शिकायत आने पर संबंधित सोशल मीडिया के नियंत्रक अपने स्तर पर निपटते भी हैं। लेकिन अगर शिकायत के कठघरे में खुद कोई सोशल मीडिया का मंच हो, तो ऐसी समस्या के हल के लिए भी एक तंत्र की जरूरत महसूस की जाती रही है।

इसी के मद्देनजर मंगलवार को सरकार की ओर से एक शिकायत अपीलीय समिति की शुरुआत की गई, जो सोशल मीडिया मंचों के फैसलों के खिलाफ उपयोगकर्ताओं की अपीलों पर गौर करेगी। उम्मीद की जा रही है कि इस समिति के जरिए उपयोगकर्ताओं के प्रति डिजिटल मंचों की जवाबदेही सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। यह एक ऐसी आनलाइन समाधान प्रणाली है, जिसमें मेटा यानी फेसबुक या ट्विटर जैसे मध्यस्थ मंचों के शिकायत अधिकारी के फैसले से पीड़ित कोई उपयोगकर्ता इससे संबंधित शिकायत दर्ज करा सकता है। सरकार की ओर से इसका मकसद यह बताया गया है कि शिकायत समाधान प्रणाली लोगों के प्रति जवाबदेह हो। यह सही है कि सोशल मीडिया के मंचों पर किसी फर्जी नाम वाले खाते से या फिर इसी तरह के अन्य स्रोतों का सहारा लेकर कई बार अवांछित हरकतें या गतिविधियां की जाती हैं। अगर इसके खिलाफ संबंधित मंचों के कार्यालयों में शिकायत भेजी जाती है तो वहां से जरूरी कार्रवाई होती है। लेकिन ऐसा भी देखा गया है कि कई बार सोशल मीडिया का कोई मंच खुद मनमाने फैसले लेने के आरोपों के कठघरे में खड़ा होता है। ऐसी स्थिति में अब उपयोगकर्ता के पास एक तंत्र है, जहां वह किसी सोशल मीडिया मंच के फैसले पर शिकायत दर्ज करा सकता है।

डिजिटल दुनिया में एक ओर जहां बेहद उपयोगी विचार, बहसें और अन्य सामग्रियों से लोग रूबरू हो रहे हैं, वहीं इसकी उपयोगिता का फायदा उठाने वाले कुछ लोगों की वजह से बहुस्तरीय परेशानियां भी खड़ी हो रही हैं। दूसरी ओर, इंटरनेट मध्यवर्ती कंपनियों की ओर से भी बड़ी संख्या में उपयोगकर्ताओं की शिकायतों को अनसुना किए जाने या फिर असंतोषजनक समाधान देने के मामले भी सामने आ रहे थे। जाहिर है, ऐसे में जिस इंटरनेट को ज्ञान और सुविधा के नए आकाश के तौर पर देखा जाता है, उसमें यह एक तरह से बाधक तत्त्व के रूप में काम करता है। इसलिए इंटरनेट को मुक्त, सुरक्षित, विश्वसनीय और जवाबदेह बनाने के मकसद से की गई ताजा पहल बेहद अहम है। मगर यह भी ध्यान रखने की जरूरत होगी कि कोई भी नई व्यवस्था नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता के समांतर उन पर निगरानी और अंकुश का जरिया न बने।


Date:02-03-23

इस्तीफों से संदेश

संपादकीय

भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और नौ महीने से बिना विभाग के मंत्री सत्येंद्र जैन ने मंगलवार को इस्तीफा दे दिया। सिसोदिया को आबकारी मामले में सीबीआई ने रविवार को गिरफ्तार कर लिया था‚ जबकि जैन मनी लॉन्ड्रिंग मामले में पिछले साल मई से तिहाड़ जेल में बंद हैं। सिसोदिया पर नईशराब नीति (फिलहाल वापस हो चुकी है) में कथित अनियमितता बरतने का आरोप है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सबसे करीबी सिसोदिया के पास दिल्ली के कुल 33 विभागों में वित्त‚ गृह‚ शिक्षा समेत 18 विभाग थे वहीं जैन के पास गिरफ्तारी से पहले स्वास्थ्य‚ उद्योग समेत 7 मंत्रालय थे। केजरीवाल ने दोनों के इस्तीफे स्वीकार कर लिए हैं। विपक्ष जैन के इस्तीफे की मांग उनकी गिरफ्तारी के बाद से ही कर रहा था‚ जबकि सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद उनके सीबीआई की रिमांड़ पर लिए जाने के बाद से इस्तीफे का दबाव भी मुख्यमंत्री पर पड़़ने लगा। दरअसल‚ मंगलवार को उस समय घटनाक्रम बड़़ी तेजी से बदला जब अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे सिसोदिया को निराशा हाथ लगी। प्रधान न्यायाधीश ड़ीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने सिसोदिया की जमानत याचिका को यह कहते हुएसुनने से इनकार कर दिया कि सिर्फ इसलिए कि घटना दिल्ली में हुई है‚ आप सीधे–सीधे शीर्ष अदालत नहीं आ सकते जबकि आपके पास संबंधित निचली अदालत के साथ–साथ दिल्ली उच्च न्यायालय के पास जाने के भी उपाय हैं। हालांकि इन इस्तीफों को विपक्ष अपने दबाव का परिणाम बता रहा है‚ लेकिन आम आदमी पार्टी का कहना है कि दोनों के पास अहम विभाग थे‚ और जनता के काम प्रभावित न हों‚ इसलिए इस्तीफे हुए हैं। बहरहाल‚ इन इस्तीफों से इतना तो साफ है कि नैतिकता या राजनीतिक शुचिता नहीं थी‚ बल्कि मात्र इसलिए इस्तीफे दिए गए हैं ताकि सरकार के कामकाज सहज–सुचारु बने रहें। हालांकि विपक्षी कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री घबरा गए हैं‚ और अपने मंत्रियों के इस्तीफों के जरिए उन्होंने राजनीतिक चाल चली है। मुख्यमंत्री के घबराने की बात पर वे खुलासा करते हैं कि शक की सुई मुख्यमंत्री केजरीवाल की तरफ बढ़ रही है। राजनीति में आरोप–प्रत्यारोप नईबात नहीं है‚ बल्कि रिवायत जैसा उपक्रम है। जरूरी है कि आरोपों से पाक–साफ होने तक आरोपी अपने संवैधानिक पद और जिम्मेदारियों से दूर रहे। राजनीतिक शुचिता और नैतिकता की भी यही दरकार है।


Date:02-03-23

गरमी ने किया बेहाल

संपादकीय

प्रकृति लंबे समय से इशारे दे रही है। रह–रहकर दुनिया के किसी न किसी भाग में बाढ़‚ भूकंप या तूफानों के जरिए होने वाली क्षति के जरिए दुष्परिणामों को दिखा भी रही है‚ लेकिन विड़म्बना है कि दुनिया भर में इन संकेतों की ओर से आंखें मूंदी जा रही हैं जो भविष्य के लिए बर्बादी का निमंत्रण है। इस बार गर्मी ने फरवरी में ही चिंतित कर देने वाला रिकॉर्ड बना दिया। यह महीना पिछले 146 सालों के दौरान या कहें कि 1877 के बाद से अब तक का सबसे गर्म फरवरी का महीना रहा। यह मौसम का सामान्य बदलाव नहीं है‚ जिसे होते हुए देखते रहा जा सके। इसका मतलब है कि इस साल मार्च के महीने से ही जबर्दस्त गर्मी‚ यहां तक कि लू का भी सामना करना पड़़ सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने मामले की संवेदनशीलता को भांपते हुए तेजी से बढ़ते तापमान के मद्देनजर राज्य सरकारों को लू से बचाव के उपाय करने के निर्देश दिए हैं। राज्यों से कहा है कि वे स्थिति पर लगातार निगाह रखें और आम जनता को इससे बचाव के बारे में जागरूक करें। तापमान की प्रति दिन और साप्ताहिक रिपोर्ट जारी की जानी चाहिए और नियमित रूप से स्थिति की समीक्षा होनी चाहिए। आम जनता को भी लू से बचाव के उपाय सुझाए गए हैं। लगातार पानी पीने और गर्म हवाओं के सीधे प्रभाव से बचने की सलाह दी गई है। अस्पतालों में भी लू प्रभावित रोगियों के इलाज के लिए पर्याप्त प्रबंध करने के निर्देश दिए हैं। देश में कुछ स्थानों पर तापमान पहले ही असामान्य स्तर पर पहुंच गया है और साल के इस समय के लिए अपेक्षित सामान्य तापमान से काफी अधिक विचलन की सूचना भी कुछ राज्यों और जिलों से मिली है। सारी जिम्मेदारी सरकार की ही नहीं होती‚ आम लोगों के लिए भी अपनी सामान्य समझ से काम लेते हुए जरूरी है कि नींबू–पानी‚ दही‚ छाछ‚ लस्सी‚ नमक के साथ फलों का जूस पिएं‚ घर में हवादार और ठंड़े स्थान पर रहें। ताजे फलों जैसे तरबूज‚ ककड़ी‚ नींबू‚ संतरा आदि का खूब सेवन करें और हल्के रंग के पतले–ढीले सूत्री वस्त्र पहनें। बाहर नंगे पैर न निकलें। खुली धूप में जाते समय छाता‚ टोपी‚ तौलिया या किसी अन्य कपड़े से सिर को ढंककर रखें। बच्चों और पालतू जानवरों को खड़े वाहन में नहीं छोड़े क्योंकि वाहन के अंदर का तापमान खतरनाक साबित हो सकता है। वक्त सरकार के साथ सहयोग करने का है।


 

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