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हाल ही में केंद्र सरकार ने दिल्ली राज्य सरकार के अधिकारों से संबंधित उच्चतम न्यायालय के निर्णय के एक प्रकार से विरोध में एक अध्यादेश जारी किया है। कुछ बिंदु –
- उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में संघवाद पर जोर दिया था, और यह भी कहा था कि लोक प्रशासन के लिए अलग-अलग सरकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण होंगे। यह एक बड़े देश के संघीय चरित्र का हिस्सा है। साथ ही निर्णय में यह भी कहा गया है कि दिल्ली सरकार की शक्तियां संसद के कानूनों के अधीन हैं। इस प्रकार केंद्र को एक नए शासी निकाय बनाने के अपने अधिकार हैं।
प्रश्न अभी भी वहीं टिका हुआ है कि क्या लोकप्रिय जनादेश प्राप्त निर्वाचित सरकार का प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण होना चाहिए या नहीं ?
इस पर ‘दो दिल्ली’ का समाधान दिया जा सकता है। कई देशों में राष्ट्रीय राजधानियों के शासन की यह विशेष व्यवस्था है।
- चूंकि राष्ट्रीय राजधानी में केंद्र के अपने स्वयं के व्यक्तियों और संपत्ति की सुरक्षा करने में सरकार के वैध हित हैं, इसलिए उसे अपने लिए नई दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बनाना चाहिए। इसमें नगर-निगम द्वारा शासित क्षेत्र शामिल होने चाहिए, जहां केंद्र सरकार के सभी प्रमुख कार्यालय, दूतावास, राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट जैसे अन्य स्थल हैं। इसकी अपनी पुलिस और नगर निगम होना चाहिए, और केंद्र सरकार के एक विभाग द्वारा सीधे शासित होना चाहिए।
- शेष दिल्ली (करीब 1.6 करोड़ की आबादी के साथ) अपने स्वयं के पुलिस तंत्र के साथ एक नया पूर्ण राज्य बनना चाहिए। किसी अन्य राज्य की तरह इसमें भी पूरी तरह से प्रतिनिधित्व वाली सरकार और राष्ट्रीय राजस्व में हिस्सेदारी होनी चाहिए। हालांकि क्षेत्रफल की दृष्टि से यह सबसे छोटा राज्य होगा, लेकिन जनसंख्या की दृष्टि से 10 मौजूदा राज्यों से बड़ा होगा। यह कई राज्यों की तुलना में अधिक व्यापार और वाणिज्य उत्पन्न कर सकेगा।
2003 में भाजपा ने संसद में दिल्ली सरकार अधिनियम प्रस्तावित किया था। इसमें दिल्ली को केंद्र सरकार से मुक्त एक संपूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग की गई थी। तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया था। दिल्ली में सीमारेखा बनाकर केंद्र और राज्य को शासनाधिकार देने से एक बीच का रास्ता निकलता है। इस पर विचार किया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अध्र्य सेनगुप्ता के लेख पर आधारित। 22 मई, 2023
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