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ताइवान जलडमरूमध्य को लेकर चीन की बढती दादागिरी का अमेरिका लगातार विरोध कर रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव की स्थिति के बढ़ने से संघर्ष की आशंका भी बढ़ गई है। अगर ऐसा होता है, तो चीन सतह और हवाई युद्ध रणनीति का उपयोग कर सकता है। इस संघर्ष के पूरे भारत-प्रशांत में भू-राजनीतिक और आर्थिक परिणाम होंगे। निम्न चार बिंदुओं में इसे समझा जा सकता है –
- भारत का आधा व्यापार पूर्व की तरफ से होता है। मलक्का जलडमरूमध्य से परे वैश्विक शिपिंग में रुकावट से हमारे निर्यात पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
- यदि शिपिंग बाधित होती है, तो इसका आपूर्ति श्रृंखलाओं पर बुरा प्रभाव पडे़गा। इस श्रृंखला पर भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्यूटिकल सहित भारतीय उद्योग के प्रमुख क्षेत्र काफी हद तक निर्भर हैं। इससे पश्चिमी बजारों में भारतीय निर्यात प्रभावित होगा।
- सेमीकंडक्टर आपूर्ति में रुकावट आ सकती है। यह सेवा उद्योग, लॉजिस्टिक आपूर्ति श्रृंखलाओं से लेकर ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों को पंगु बना सकता है। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ सकती है।
- सबमरीन (समुद्र के अंदर की) केबल में बाधा से भारत और सिलिकॉन वैली के बीच डेटा के प्रवाह पर असर पड़ सकता है।
उत्पादकता, रोजगार और राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले ताइवान संकट के विनाशकारी प्रभावों से निपटने के लिए भारत को तत्काल प्रभाव से ऐसे उपाय करने की जरूरत है, जो अर्थव्यवस्था और समाज के सभी क्षेत्रों को व्यापक रूप से कवर करते हों। भारत की विदेश नीति उसे आसियान, यूरोपीय संघ, जापान, कोरिया और दक्षिण प्रशांत के अन्य देशों के साथ जोड़ती है। इन देशों की इस संकटग्रस्त क्षेत्र में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। भारत को चाहिए कि वह आने वाले संकट के परिणामों के प्रति अभी से ग्लोबल साउथ में जागरूकता पैदा करे। विचार-विमर्श करके स्थिति को स्थिर करने की दिशा में कई बिंदुओं पर सहमत हुआ जा सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित विजय गोखले के लेख पर आधारित। 26 जून, 2023
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