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हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने पॉक्सो या प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स एक्ट से संबंधित एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश दिया है। इसका उद्देश्य बाल यौन शोषण की घटनाओं पर अंकुश लगाना है।
न्यायालय ने क्या कहा –
उच्च न्यायालय का कहना है कि सहमति से होने वाले किशोर यौन संबंधों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें वास्तविक दुर्व्यवहार के मामलों से अलग किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने जनवरी से अब तक के उन मामलों की जानकारी भी मांगी है, जिसमें या तो गैरकानूनी टू-फिंगर टेस्ट या शर्मनाक पोटेंसी टेस्ट किया गया था। उच्च न्यायालय के दोनों निर्देश उत्कृष्ट और अत्यंत आवश्यक न्यायिक सोच के उदाहरण हैं।
पृष्ठभूमि –
2013 में सहमति की उम्र को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष करने के कारण मामलों की संख्या बहुत बढ़ गई थी, क्योंकि 18 वर्ष से कम उम्र वालों के साथ यौन संबंध वैधानिक बलात्कार बन गया। इस प्रकार अपराध घोषित करने का बुरा प्रभाव परिवारों पर पड़ता है, जबकि इसे पूरी तरह से अनदेखा किया गया है।
डेटा से पता चलता है कि अक्सर पारिवारिक समस्याएं और प्रेम संबंध मिलकर 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों में आत्महत्या का प्रमुख कारण बनते हैं। जस्टिस चंद्रचूड़ ने पिछले दिसंबर में पॉक्सों की बैठक में संसद से आग्रह किया था कि किशोरों में यौन सहमति की उम्र के मुद्दे का फिर से आकलन किया जाना चाहिए, क्योंकि बहुत अधिक कानूनों में उलझने से किशोरों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इस संदर्भ में मद्रास उच्च न्यायालय के निर्देशों का अनुसरण अन्य न्यायालयों को भी करना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 12 जुलाई, 2023
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