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हाल ही में महाराष्ट्र में चल रहा पवार बनाम पवार का राजनीतिक विवाद ‘पारिवारिक पार्टियों’ की लंबी परंपरा का ही एक और उदाहरण है। कभी वोट खींचने वाले, तो कभी मतदाताओं को निराश करने वाले ये नेता परिवार के अंदर या बाहर लड़ाई के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।
भारतीय लोकतंत्र की शुरूआत भले ही परिवारवाद के बिना हुई हो, लेकिन परिवारों को राजनीति में पैर जमाते देर नहीं लगी। जब यह सिलसिला चल पड़ता है, तो सरकारें पीछे रह जाती हैं, और झगड़े मुख्य हो जाते हैं। महाराष्ट्र की दो क्षेत्रीय पार्टियां, जो बाल ठाकरे और शरद पवार ने बनाई थी, दोनों ही उत्तराधिकार के प्रश्न पर पारिवारिक झगड़ों से प्रभावित हुई। कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार के नाम से जाना जाता रहा है। उसकी विपक्षी जनता पार्टी की अनेक क्षेत्रीय पार्टियां नाम और नियम में जरूर समाजवादी रहीं, लेकिन कर्म और रूप में परिवारवाद पर ही चलती रही हैं।
चुनावी सफलता और राजनीतिक प्रभुत्व के साथ ऐसी पार्टियां पारिवारिक सम्पति बनती गईं। इनके संचालन में बहुत अधिक केंद्रीकरण कर दिया गया। इनके नेता परिवार से परे हटकर देखने में विफल होते गए। इससे पार्टियां कमजोर होती गईं। इसका उदाहरण कांग्रेस पार्टी, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, अकाली दल आदि की विफलता में देखा जा सकता है। जबकि संघ परिवार में परिवारवाद की राजनीति नहीं है।
हाल ही में कर्नाटक में हुई कांग्रेस की जीत का कारण चुनावी रणनीति के प्रभारी नेता का गैर-पारिवारिक होना कहा जा सकता है। आज के अत्यधिक प्रतिस्पर्धी चुनावी बाजार में, परिवार एक रणनीतिक कमजोरी का कारण बन सकता है। अतः राजनीतिक दलों की अंदरूनी संरचना का विकेंद्रीकरण किया जाना बहुत जरूरी है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 7 जुलाई, 2023
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