‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़े भ्रम दूर करने होंगे
संपादकीय
दो लोकसभा चुनावों (2014 और 2019 ) के बीच देश में लगभग तीन दर्जन से ज्यादा राज्य विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। नए अपुष्ट लेकिन विश्वसनीय आंकड़े के अनुसार वर्ष 2024 के आम चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। एक आम चुनाव में 25 लाख कर्मचारी/अधिकारी और लाखों अन्य पुलिस एवं पैरामिलेट्री फोर्सेस के लोग महीनों तक व्यस्त रहते हैं। प्रशासनिक तारतम्यता इतने लम्बे वक्त तक टूट जाती है। फिर केंद्र-राज्य में समन्वय की समस्या आती है। अगर एक साथ चुनाव होंगे तो यह सब कुछ बचेगा। यह भी मानना गलत है कि एक साथ चुनाव कराने से केंद्र में सत्तारूढ़ दल को फायदा मिलेगा। लॉ कमीशन का मानना है कि साथ चुनाव होने से मतदान का प्रतिशत बढ़ जाता है। संशय दूर करने के लिए ही कोविंद समीति देश भर में घूमेगी और लोगों की राय जानना चाहेगी। उधर विशेष सत्र में इस पर चर्चा संभव नहीं है, क्योंकि समिति को अपनी रिपोर्ट देने में कम से कम कुछ माह लगेंगे। दूसरा संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना होगा। ऐसे संशोधनों के लिए दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत चाहिए जो फिलहाल सरकार के पास नहीं है। इसके अलावा अनुच्छेद 368 के तहत आधे से ज्यादा राज्यों की सहमति भी चाहिए। विशेष सत्र का उद्देश्य कुछ अन्य जनोपयोगी कानून बनाना हो सकता है।
एक साथ चुनाव की पहल
संपादकीय
केंद्र सरकार ने एक देश-एक चुनाव पर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर यह स्पष्ट कर दिया कि वह लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने को लेकर गंभीर है। यह कोई नया विचार नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी एक लंबे समय से एक साथ चुनाव की पैरवी करते रहे हैं। उनके पहले लालकृष्ण आडवाणी भी इसकी आवश्यकता जताते रहे हैं। 2018 में विधि आयोग ने भी एक देश-एक चुनाव की पहल का समर्थन करते हुए एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें यह रेखांकित किया गया था कि इसके लिए कुछ संवैधानिक संशोधन करने होंगे। यह कोई बहुत कठिन कार्य नहीं। विगत में निर्वाचन आयोग भी यह कह चुका है कि वह लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने में सक्षम है। इस पर आश्चर्य नहीं कि एक देश-एक चुनाव पर समिति गठन की घोषणा होते ही कुछ नेताओं ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया है। कुछ ने तो इसे असंभव या फिर असंवैधानिक भी बता दिया है। ऐसे नेता इस तथ्य की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही होते थे। यह सिलसिला मुख्यतः इसलिए बाधित हो गया, क्योंकि अनुच्छेद 356 का मनमाना इस्तेमाल करके राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाने लगा।
जो लोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के विचार का विरोध कर रहे हैं, उन्हें इससे परिचित होना चाहिए कि कई देशों में एक साथ ही चुनाव होते हैं। कुछ देशों में तो केंद्र के साथ राज्यों और स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ करा लिए जाते हैं। यह भी एक तथ्य है कि 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में विधानसभा चुनाव कराए गए थे। यदि चार राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हो सकते हैं तो सभी राज्यों में क्यों नहीं? कुछ क्षेत्रीय दल इस तर्क के जरिये एक साथ चुनाव के विचार का विरोध करते रहे हैं कि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होते हैं और यदि ये मुद्दे राज्यों के मुद्दों पर हावी हो जाएंगे तो इससे उन्हें नुकसान होगा। यदि ऐसा है तो फिर यह तो हो ही सकता है कि लोकसभा चुनाव के दो–ढाई वर्ष बाद सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ करा लिए जाएं। इससे भी समय और संसाधनों की अच्छी-खासी बचत होगी। अच्छा हो कि एक साथ चुनाव की पहल का विरोध कर रहे नेता दलगत हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दें और इस पर ध्यान दें कि बार-बार चुनाव होते रहने से एक तो संसाधनों की बर्बादी होती है और दूसरे आचार संहिता लागू होते रहने के कारण विकास के काम भी अटकते हैं। इसके अलावा राजनीतिक दल रह-रहकर चुनाव होते रहने के चलते सदैव चुनावी मुद्रा में बने रहते हैं और राष्ट्रहित के विषयों पर कम ध्यान दे पाते हैं।
Date:02-09-23
शून्य कार्बन का लक्ष्य
वीरेंद्र कुमार पैन्यूली
पृथ्वी का तापमान बढ़ाने में कार्बन डाई आक्साइड का योगदान लगभग सत्तर फीसद है। इसलिए पृथ्वी के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन को कम से कम करना जरूरी है। 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन करना आवश्यक हो गया है। इसके साथ ही जो कार्बन वायुमंडल में मौजूद है, उसको भी कम करना आवश्यक है। यह जैविक और रासायनिक तरीकों से किया भी जा रहा है। इसको ‘कार्बन आफसेट’ करना भी कहा जाता है। इसमें कार्बन अवशोषकों के रूप में वनों तथा हरियाली की प्रमुख भूमिका है।
जीवाश्म इंधनों का उपयोग करने वाले उद्योग अपने कार्बन उत्सर्जन को ‘कार्बन कैप्चर स्टोरेज’ तकनीक अपना कर वायुमंडल में जाने से रोक रहे हैं। ऐसी तकनीकों में कार्बन उत्सर्जन को प्रणालियों में ही पकड़ कर, वायुमंडल में पहुंचने से पहले, समुद्र की तलहटियों, तेल या गैस के खाली कुंओं में भूमिगत कर भंडारिध्त कर दिया जाता है, जिससे उसका फिर वायुमंडल में लौटना संभव नहीं हो पाता।
अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य प्रमाणन के बाद वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड न जाने देने या वहां से इसे हटाने के लिए ‘कार्बन क्रेडिट’ दिए जाते हैं। एक मीट्रिक टन कार्बन डाई आक्साइड या उसके समतुल्य ग्रीन हाऊस गैसों को वायुमंडल में जाने से रोकने या उन्हें वायुमंडल से बाहर करने वाले को एक ‘कार्बन क्रेडिट’ दिया जाता है। जो उद्यम या प्रतिष्ठान उपकरणों, पद्धतियों या तकनीक के बदलावों से अपने कार्बन उत्सर्जन पहले की अपेक्षा कम कर देते हैं, तो वे भी ‘कार्बन क्रेडिट’ पाने के हकदार हो जाते हैं। ‘कार्बन क्रेडिट’ के संदर्भ में मुख्य बात यह है कि अब इसके बड़े-बड़े खरीदार इसका मूल्य भी लगा रहे हैं। पेरिस समझौते में निहित प्रवधानों के अनुसार संयुक्त राष्ट्र की यूएनडीपी की निगरानी में देशों द्वारा प्रमाणित ‘कार्बन क्रेडिट कमोडिटी’ के तौर पर कार्बन बाजार में खरीदा और बेचा भी जा रहा है। इसलिए कार्बन क्रेडिट अर्जित करना पर्यावरण सुधार के साथ आय का जरिया भी हो सकता है।
2021 में वैश्विक स्वैच्छिक कार्बन बाजार करीब दो अरब डालर का था। 2020 के मुकाबले यह चौगुना था। 2030 तक यह दस से चालीस अरब डालर तक का हो सकता है। इसकी वजह है कि अमेरिका, यूरोप, कोरिया, चीन आदि देश अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण बंदी से बचने के लिए समतुल्य कार्बन क्रेडिट बाजार से खरीद कर अपने बढ़े कार्बन उत्सर्जन की भरपाई करने लगे हैं। वर्तमान में एक कार्बन क्रेडिट से एक टन कार्बन डाई आक्साइड या उसके बराबर ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की भरपाई की जा सकती है।
लगभग हर देश अपनी अलग कार्बन व्यापार प्रणाली बना रहा है। इनमें एकरूपता नहीं है। जैसे इंग्लैंड की अलग है, भारत की अलग है। यूरोपीय संघ की अपनी कार्बन व्यापार प्रणाली- ईटीएस- ग्रीन हाउस गैसों के लिए है। अब तो वह कार्बन कर भी लगा रहा है। हाल में देशों के लिए इसे आसान बनाने और एकरूपता लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी ने डीपीजी नाम से एक मंच भी बनाया है।
भारत भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहता है। हाल में भारत ने अपनी ‘कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग’ योजना सीसीटीएस घोषित की है। सरकार मानती है कि इससे देश को ‘संपूर्ण शून्य’ का लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी। साथ ही उद्योग भी अपने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कार्बन व्यापार की बाजार आधारित प्रक्रियाओं का लाभ लेंगे। भारत चाहता है कि देश का आंतरिक कार्बन व्यापार फले-फूले। ‘ऊर्जा संरक्षण संशोधन विधेयक 2022’ में ही केंद्र सरकार ने ‘कार्बन ट्रेडिंग फ्रेमवर्क’ स्थापित करने के लिए अधिकृत किया हुआ था। निस्संदेह इसे लेकर अब सही मायने में मानव संसाधन और तकनीकी कामों की शुरुआत भर हुई है।
कार्बन व्यापार में चीन, अमेरिका, रूस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया बड़े निर्यातक हैं। इन देशों में जिन कंपनियों का कार्बन उत्सर्जन देश के सालाना कार्बन उत्सर्जन का साठ फीसद से ज्यादा है, वे अपने उत्सर्जन की भरपाई ‘कार्बन क्रेडिट’ खरीद कर करना आसान मानती हैं। प्रति इकाई कार्बन क्रेडिट के बाजार भाव में मांग के अनुसार उतार-चढ़ाव आता रहता है। मसलन, चीन में सरकार की कार्बन उत्सर्जन रोकने पर सख्ती की नीति के कारण उद्योग कार्बन क्रेडिट खरीदने की होड़ में हैं। इससे वहां कार्बन क्रेडिट के भाव में तेजी आई है। दूसरी तरफ, इंग्लैंड में राजनीतिक कारणों से कार्बन क्रेडिट का भाव यूरोप से भी नीचे चला गया था। पर यह भी तो है कि जब दाम बहुत नीचे गिर जाएंगे तब तो प्रदूषण जारी रखना लाभ का सौदा ही रहेगा।
स्वैच्छिक कार्बन बाजार में सबसे ज्यादा ‘कार्बन क्रेडिट’ अवनत वनों के सुधार और उनकी पुनर्स्थापना के लिए दिए जाते हैं। इनमें सालाना वृद्धि भी कई गुना हो रही है। हवाई और समुद्री परिवहन, इस्पात और बिजली उत्पादन तथा पेट्रोलियम शोधन क्षेत्र की इकाइयां ‘कार्बन आफसेट’ या ‘कार्बन क्रेडिटों’ को खरीद कर ही अपना व्यवसाय बनाए हुए हैं। इनमें बड़े पैमाने पर वनीकरण के माध्यम से हुए कार्बन आफसेट के लिए दिए गए कार्बन क्रेडिट भी होते हैं।
जंगल लगाने या कार्बन अवशोषक के रूप में सुधारने के लिए दिए गए ‘कार्बन आफसेट क्रेडिट’ सबसे ज्यादा विवादों में रहते हैं। मई 2023 में दुनिया में वाशिंगटन आधारित प्रमुख ‘कार्बन क्रेडिट सर्टिफायर कंपनी’ ‘वीरा’ पर भी यह आरोप लगे थे कि उनसे पाए गए दसियों लाख भ्रामक गलत कार्बन आफसेट क्रेडिट का ब्योरा देकर कतिपय प्रतिष्ठानों ने अपनी-अपनी जलवायु और जैवविविधता के प्रति प्रतिबद्धता पूरी की थी। आरोपग्रस्त ‘वीरा’ के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी को इस पर अपना पद छोड़ना पड़ा था। उस पर आरोप था कि उसने उन वर्षा वनों को, जो संकट में थे ही नहीं, उन्हें करीब एक अरब ‘वीसीएस वेरिफाइड कार्बन स्टैंडर्ड’ के क्रेडिट दिए थे।
आज वीरा समेत अन्य कार्बन क्रेडिट प्रमाणीकरण कंपनियां भी मानती हैं कि जंगलों से संदर्भित कार्बन आफसेट आकलन में अभी पूर्णता नहीं आई है। वन स्थितियों की आधारभूत संरचना में छेड़छाड़ करके ज्यादा कार्बन आफसेट दिखाया जा सकता है। अभी दलदली क्षेत्रों के कार्बन क्रेडिट प्रमाणीकरण की शुरुआत भर है। फिर भी वायुमंडल के कार्बन डाई आक्साईड को कम करने के लिए वनीकरण सबसे बेहतर प्राकृतिक तकनीक है।
‘कार्बन क्रेडिट’ विक्रेता के कंधे पर चढ़ कर कुछ भारी कार्बन उत्सर्जन करने वाली नामी-गिरामी कंपनियां अपने को संपूर्ण शून्य कार्बन और नकारात्मक कार्बन उत्सर्जक घोषित करके भी अपनी छवि सुधारने का प्रयास कर रही हैं। इसे यों समझ लीजिए कि किराए की कोख से संतान पैदा करवा रही हैं। कोई भी उद्यम, जो अपने कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में कमी लाने की दिशा में ‘कार्बन फुटप्रिंट’ अगर कम नहीं कर पा रहा है, तो दूसरों ने जो कार्बन आफसेट किया है और उन्हें उससे जो कार्बन क्रेडिट मिला है, उसको खरीद कर अपना कार्बन उत्सर्जन वैसे ही जारी रखता है, जिस ढर्रे पर करता रहा है। इसलिए स्थानीय स्तर पर जहां प्रदूषण हो रहा है वहां प्रदूषण होते रहने की संभावनाएं बनी रहती हैं। उसे दूर करने में कहीं और से खरीदे कार्बन क्रेडिट से मदद नहीं मिलेगी।
अगर कहीं से कार्बन क्रेडिट खरीद कर स्थानीय स्तर पर प्रदूषण करना जारी रखा जाए, तो इसे न्यायिक नहीं कहा जा सकता है। यह ऐसा ही जैसे एक जगह का लगा विविधता भरा जंगल काट कर दूरस्थ स्थल पर नए पेड़-पौधे उगा कर यह कहना कि सब पटरी पर ले आया गया है। कार्बन प्रदूषण पर कटौती करना जनस्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है।
एक साथ चुनाव
संपादकीय
एक देश एक चुनाव पर विचार की गंभीर पहल बहुत महत्वपूर्ण और आकर्षक है। उससे भी दिलचस्प यह है कि इस विचार को लागू करने की व्यावहारिकता का पता लगाने के लिए बनाई गई समिति का अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया है। पूर्व राष्ट्रपति के नेतृत्व में विशेषज्ञों की टीम अध्ययन करेगी कि क्या पूरे देश में लोकसभा चुनाव के साथ ही तमाम विधानसभाओं के चुनाव कराना संभव है? समिति के प्रकार से ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार एक देश एक चुनाव का मन बना चुकी है, अब वह केवल इस बात पर काम करेगी कि फैसले को कैसे लागू किया जा सकता है। जाहिर है, भारत जैसे विशाल देश में विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव कराना कतई आसान नहीं है। एक देश एक चुनाव का फैसला अगर लिया जाता है, तो क्रांतिकारी होगा। लोकतंत्र में स्थिरता भले आएगी, पर सियासी दलों के लिए समस्या बढ़ जाएगी। सरकारों को गिराने की साजिशों पर लगाम लगेगी, पर राष्ट्रपति शासन की जरूरत बढ़ जाएगी। कहीं बहुमत न होने की स्थिति में चुनाव का लंबा इंतजार भी करना पड़ सकता है। ऐसी तमाम आशंकाओं और संभावनाओं पर पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में विचार होगा।
यह सर्वज्ञात बात है कि साल 1967 तक देश में विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव साथ ही होते थे। संयुक्त विधायक दल के दौर और केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस के अंदर खींचतान के कारण एक देश एक चुनाव का क्रम टूट गया। अब देश में जरूरत के मुताबिक चुनाव होते रहते हैं। मध्यावधि चुनाव भी हुए हैं। क्या एक देश एक चुनाव की स्थिति में मध्यावधि चुनाव की संभावना खत्म हो जाएगी? क्या राजनीतिक दल इस पर सहमत हो सकेंगे? पूर्व राष्ट्रपति को सभी संबंधित पक्षों से चर्चा करके आगे का रास्ता तय करना पड़ेगा। संविधान विशेषज्ञों की भी जरूरत पड़ेगी। एकाधिक संविधान संशोधन भी करने पड़ेंगे। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने आश्वस्त किया है कि समिति की रिपोर्ट आएगी, जिस पर चर्चा होगी। संसद परिपक्व है और घबराने की जरूरत नहीं है। वैसे एक देश एक चुनाव का विचार नया नहीं है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके पक्ष में चर्चा कर चुके हैं। विधि आयोग की सिफारिश भी इसके पक्ष में है। इस विषय पर सर्वदलीय बैठक भी हो चुकी है, मगर इस पर एकराय नहीं बन सकी थी। अब देश के राजनेताओं को इस साहसिक फैसले के लिए तैयार होना चाहिए।
एक देश एक चुनाव से निस्संदेह चुनावी खर्च में भारी कमी आएगी और समय भी खूब बचेगा। राजनीतिक पार्टियों को भी शासन-प्रशासन के लिए ज्यादा समय मिलेगा और चुनावी कामकाज जल्दी निपट जाया करेंगे। ज्यादातर बड़ी व राष्ट्रीय पार्टियां हमेशा ही चुनावी मुद्रा में रहती हैं, जिससे अनेक बड़े फैसले टलते रहते हैं। इस साल नवंबर-दिसंबर में पांच राज्यों- मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं और इसके बाद अगले साल मई-जून में लोकसभा चुनाव। शायद हर साल चार से पांच राज्यों में चुनाव की नौबत आती है। बहरहाल, इस विषय पर समिति गठन के बाद राजनीति भी तेज हो गई है, जबकि यह ठीक नहीं है। इसके लिए राजनीतिक दलों में समन्वय होना जरूरी है। अगर आने वाले दिनों में किसी दल को इस विचार का विरोध करना है, तो उसे ज्यादा गंभीर तथ्य और तर्क के साथ सामने आना होगा।
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