चुनाव आयोग चयन प्रक्रिया में सरकार का गलत कदम

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हाल ही में केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग के चयन के संबंध में राज्य सभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया है। इस विधेयक में चुनाव आयोग के चयन के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और केंद्रीय कैबीनेट मंत्री का एक पैनल बनाने का प्रस्ताव है। यह प्रस्ताव कुछ मायनों में सही नहीं कहा जा सकता है –

  • यह संविधान पीठ के हालिया निर्णय के विपरीत है, जिसमें एक स्वतंत्र चयन समिति की परिकल्पना की गई थी। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल थे। यह निर्णय 1990 की दिनेश गोस्वामी समिति और 1975 की तारकुंडे समिति की सिफारिशों के अनुकूल था। न्यायालय ने यह भी कहा था कि उसका आदेश तभी तक प्रभावी रहेगा, जब तक संसद संविधान के अनुसार कोई कानून नहीं बना लेती है।
  • चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जो न केवल चुनाव कराती है, बल्कि अर्ध-न्यायिक भूमिका भी निभाती है। अतः इसकी चयन-प्रक्रिया में कार्यकारिणी की प्रधानता नहीं होनी चाहिए।
  • चुनावी लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वतंत्र और गैर-पक्षपातपूर्ण चुनाव आयोग का होना जरूरी है।

2019 के आम चुनावों में चुनाव आयोग पर पक्षपात किए जाने के आरोप लग चुके हैं। उस दौरान आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करके सत्ताधारी पार्टी को लाभ पहुँचाया गया था। यही कारण है कि विश्व में अनेक लोकतंत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाली स्वीडन की संस्था ने भारतीय लोकतंत्र में ‘चुनावी निरंकुशता’ का होना बताया है। इसका कारण चुनाव आयोग की स्वायत्तता में कमी है। विपक्ष को चाहिए कि प्रस्तुत विधेयक पर पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद संशोधन की कोशिश करे।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 14 अगस्त, 2023

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