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देश में जाति आधारित जनगणना की मांग समय-समय पर उठती रही है। इस पर हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि उन्हें देश में केवल चार बड़ी जातियां दिखती हैं – महिलाएं, युवा, किसान और गरीब। वास्तव में तो नीतिनिर्माताओं को नागरिकों को इसी चश्में से देखना चाहिए। लेकिन वर्तमान में, न तो राजनीति और न ही नीति-निर्माण इन चार वंचित वर्गों के लिए पर्याप्त काम कर रहे हैं। इसे बिंदुओं में देखते हैं –
- नारी शक्ति के दो चेहरे हैं – एक ओर महिला मतदाताओं के महत्व और महिला – लक्षित कल्याण योजनाओं को व्यापक रूप से मान्यता दी जा रही है। दूसरी ओर, बहुत ही कम महिलओं को पार्टी का टिकट दिया जा रहा है। समान अवसर का दिखावा करने के बावजूद, राज्य व्यवस्था असमान रीति-रिवाजों को नहीं सुधारती है। उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए देर शाम की कक्षाओं पर प्रतिबंध लगाना लिंग-भेदी नीति का ज्वलंत उदाहरण है।
- युवा शक्ति- अभी जब देश को जनसांख्यिकीय लाभ मिलना चाहिए था, देश की कई प्रमुख जाति के युवा किसी प्रकार से अपने लिए आरक्षण का प्रावधान ढूंढ रहे हैं।
- किसानों की मृगतृष्णा- जिन समुदायों ने अपनी पुरानी जमीनों का लाभ लिया है, उन्हें भी अब स्थिर कृषि आय का सामना करना पड़ रहा है। अब उनको इससे बचने के लिए जाति आधारित आरक्षण का ही सहारा नजर आता है।
- गरीबों की कौन सुनता है- आरक्षण के शोर-शराबे में इस तथ्य को दबा दिया गया है कि आर्थिक विकास गरीबी उन्मूलन की सबसे अच्छी दवा है।
वास्तव में भारतीयों की सामूहिक वृद्धि स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश के साथ-साथ गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने से संभव है। सरकार को चाहिए कि जातिगत मतगणना के बजाय वह वंचित वर्गों और महिलाओं के उत्थान के लिए काम करे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 05 दिसंबर, 2023
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