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भारत के कई राज्यों में आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए आरक्षण बढ़ाने को सशक्त साधन माना जाने लगा है। हाल ही में बिहार सरकार ने आरक्षण के माध्यम से राज्य की गरीबी खत्म करने की उम्मीद में जाति सर्वेक्षण पर आधारित विस्तृत आर्थिक आंकड़े पेश किए हैं। कुछ बिंदु –
- सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह रहा कि राज्य में 6000 रु. मासिक आय वाले को आर्थिक रूप से गरीब माना गया है। यह राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 में बिहार की बहुआयामी गरीबी के एक अलग अनुमान के समान ही है। जाति सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया कि लगभग 34% परिवार आर्थिक रूप से गरीब हैं, जबकि नीति आयोग के परिवार सर्वेक्षण में 33.8% जनसंख्या को गरीब बताया गया है।
- सर्वेक्षण के आधार पर बिहार सरकार ने कहा है कि वह इकॉनॉमिक वीकर सैक्शन के लिए 10% निर्धारित आरक्षण के अलावा, आरक्षण को 65% तक बढ़ाने के लिए जल्द ही कानून लाएगी।
- राज्य ने गरीबी से निपटने के लिए अतिरिक्त केंद्रीय हस्तांतरण प्राप्त करने हेतु विशेष श्रेणी का दर्जा भी मांगा है।
आरक्षण कोई हल नहीं –
- बिहार में जनसंख्या के अनुपात में आर्थिक हिस्सेदारी का आकार बहुत छोटा है। यह अवसरों को सीमित करता है, और यही बिहार की प्राथमिक समस्या है।
- आरक्षण बढ़ाने से 50% की कानूनी सीमा का उल्लंघन होगा।
- इसके अलावा बिहार का जाति सर्वेक्षण बताता है कि वहाँ लगभग सभी धर्मों के सामान्य श्रेणी समूहों में गरीबी 25% है।
वित्तीय हस्तांतरण के पक्ष पर देखें तो 16वें वित्त आयोग के संदर्भ की शर्तों के माध्यम से बिहार की गरीबी में कमी लाई जा सकती है। विशेष श्रेणी के राज्यों को संसाधन लाभ इतना ही होता है कि उन्हें केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए अपेक्षाकृत कम धन देना होता है। वित्त आयोग अगर चाहेए तो ऐसा फार्मूला तैयार कर सकता है, जिसमे भारत के सबसे गरीब राज्यों को समान समर्थन मिले। इसे भारत सरकार की गरीबी-विरोधी योजनाओं से जोड़ने से कार्यान्वयन में नियंत्रण और संतुलन बनेगा। इससे समस्या का आंशिक हल हो सकेगा।
“द टाइम्स ऑफ इंडिया” में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 9 नवंबर, 2023
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