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हाल ही में उच्चतम न्यायालय की एक पीठ ने राज्यपालों को याद दिलाया है कि वे निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्हें विधानसभा जो भी विधेयक भेजती है, उसे समय पर लौटाया जाना चाहिए। कुछ बिंदु –
- संविधान के अनुच्छेद 200 में किसी विधेयक पर राज्यपाल को तीन अधिकार दिए गए हैं। वह उसे सहमति दें, अनुमति रोकें या उन्हें आरक्षित रखें।
- अनुच्छेद 246(3) में विधायिकाओं को राज्य और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की विशेष शक्ति दी गई है।
- अगर राज्यपाल के पास से वापस लौटने पर विधेयक पर पुनर्विचार किया जाता है, और इसे फिर से संशोधन या बिना संशोधन के सदन पारित कर देता है, तो फिर राज्यपाल इसे अनुमति के लिए रोक नहीं सकते हैं।
- राज्यपाल के सहमति देने पर निर्णय लेने की समय सीमा पर संविधान चुप है। राज्यपाल इसी का फायदा उठाते हुए विधायिका के कार्यों में विलंब करा देते हैं।
हाल ही में पंजाब, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना की सरकारों ने अपने राज्यपालों के विलंब के रवैये को लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
राज्यपालों का ऐसा रवैया संवैधानिक प्रशासन के पूरे उद्देश्य को खत्म कर देता है। यह विधायिका की कानून बनाने की शक्ति में बाधा डालकर सुचारू शासन में बाधा डालता है। यह उस जनता के प्रति कठोरता है, जो इस उम्मीद पर अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है कि वह एक निश्चित समय सीमा के भीतर उनकी मांगों को आकार देंगे।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 9 नवंबर, 2023
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