नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की गिरती साख

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भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 में एक ऐसे प्राधिकारी हैं, जो भारत सरकार तथा सभी प्रादेशिक सरकारों के सभी तरह के लेखों का ऑडिट करते हैं। वे सरकार के स्वामित्व वाली कंपनियों का भी ऑडिट करते हैं। हाल में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के द्वारा सरकार के खातों की ऑडिट संख्या घटती जा रही है। इस पर कुछ बिंदु –

  • पिछले कुछ वर्षों में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक या सीएजी या कैग की जवाबदेही, तकनीकी विशेषज्ञता और संसाधन आवंटन पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। ये प्रश्न फिलहाल परीक्षक के सांख्यिकीय आंकड़ों के चयन पर फिर से उभर आए हैं।
  • हालाँकि कैग की निगरानी का दायरा सार्वजनिक व्यय की प्रकृति के अनुसार बदलना तय है (जहाँ अब राज्य केंद्र से आगे हैं)। यह अंतर केवल प्रगतिशील हस्तांतरण के साथ ही दूर हो सकता है।
  • कैग की मुख्य चुनौती डिजिटल व्यय का ऑडिट करना है। सरकार ने जिस प्रकार से डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा दिया है, उसे देखते हुए इस पर अधिक ऑडिट भी होना चाहिए। डेटा एनालिटिक्स के माध्यम से यह नीतिगत समाधान भी दे सकता है।
  • भारत सरकार स्वयं भी बहुत अधिक डेटा संसाधित कर रही है। अतः इसके ऑडिटर को भी उसी गति से चलना चाहिए। डिजिटल हस्तांतरण के साथ फिजिकल ऑडिट की जरूरत भले ही खत्म हो जाए, लेकिन फॉरेंसिक ऑडिट के लिए कैग को दुरूस्त रहना चाहिए।

फिलहाल इन सबमें ढील के पीछे इस महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थान की नियुक्ति में अपारदर्शिता, हितों के टकराव और शीर्ष स्तर पर तकनीकी विशेषज्ञता की कमी का आरोप लगाया जा रहा है। उम्मीद की जा सकती है कि सरकार इसे निष्पक्ष बनाने का प्रयास करेगी।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 22 दिसंबर, 2023

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