फिर संकरी गली में फंसा अफगानिस्तान

कायर सेना के लज्जापूर्ण समर्पण और अफगानिस्तान के बुजदिल राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश से भागने के बाद पूरे देश पर तालिबान का कब्जा हो गया है।

जय श्रीवास्तव

कायर सेना के लज्जापूर्ण समर्पण और अफगानिस्तान के बुजदिल राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश से भागने के बाद पूरे देश पर तालिबान का कब्जा हो गया है। बिना संघर्ष और खूनखराबा किए तालिबान को वह सब कुछ मिल गया जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। अमेरिका की बेताबी देख तालिबान ने अपनी शर्तों पर समझौता किया। फरवरी,2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जहां अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को चरणबद्ध तरीके से हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान ने यह लिखकर दिया कि वह अमेरिकी सैनिकों पर हमला नहीं करेगा। मगर तालिबान ने नाटो सेनाओं पर हमला जारी रखा। समझौते में ये भी कहा गया कि तालिबान अपने नियंत्रण वाले इलाके में अलकायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाएगा। इस वादे पर तालिबान कितना खरा उतरेगा यह देखने वाली बात होगी।

आज अफगानिस्तान फिर वही पाषाण युग में पहुंच गया है जहां औरतों को हिजाब से बाहर निकलने की सजा कोडों से दी जाती थी। दस वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों का स्कूल मे पढ़ना हराम माना जाता था। शरिया कानून के उल्लंघन करने पर मौत की सजा दी जाती थी। संगीत सुनने पर पाबंदी थी,अफगानिस्तान के सिनेमाघरों में ताला लटका रहता था। कोई भी अफगानी बगैर दाढ़ी नहीं रह सकता था।
हमेशा से अफगानिस्तान में ऐसा नहीं था। एक समय अफगानी महिलाओं की गिनती एशिया की सबसे आधुनिक और पढ़ी-लिखी महिलाओं में होती थी। अफगानिस्तान की तरक्की में वहां के शासक जाहिर शाह (1933-1973) की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

इनके शासनकाल में अफगानिस्तान ने काफी तरक्की की मगर एक षड्यंत्र के तहत उनके बहनोई ने ही तख्तापलट कर दिया। वे भी शासन सत्ता अधिक दिनों तक संभाल नहीं सके। उनको पदच्युत कर कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली मगर वे सभी को एकजुट करने में नाकाम रहे। मुजाहिद्दीन लगातार कम्युनिस्ट सरकार को अस्थिर कर रहे थे। तब साल 1979 में सोवियत संघ ने अपनी फौज कम्युनिस्टों के समर्थन में वहां भेज दी। उसके बाद 1980 से 1988 तक सोवियत संघ की फौज अफगानिस्तान में रहीं। इस भयानक युद्ध में सोवियत संघ के पंद्रह हजार सैनिक समेत दस लाख लोग मारे गए थे।

अमेरिका ने पाकिस्तान को अपने पाले में कर अफगान सरकार के खिलाफ लड़ रहे मुजाहिदीनों का समर्थन करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान इस्लामिक देशों में यह प्रचारित करने में सफल रहा कि अफगानिस्तान में इसलाम खतरे में है और इसलाम की रक्षा के लिए सभी देशों को मुजाहिदीनों का खुलकर समर्थन करना होगा।1985 में मिखाइल गोर्वाचोव सोवियत संघ के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उन्होंने अपनी नई विदेश नीति के तहत यह फैसला किया कि सोवियत सेना अफगानिस्तान से लौटेंगी। फरवरी 1989 में सोवियत संघ की फौज अफगानिस्तान से लौट आई। ऐसे में अफगान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की ताकत बेहद कम हो गई मगर तीन-चार साल कम्युनिस्ट सरकार मुजाहिद्दीनों से लड़ती रही। साल 1992 में नजीबुल्लाह की सरकार गिर गई।

मुजाहिद्दीनों की तरफ से बुरहानुद्दीन रब्बानी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बने मगर उन्हें सभी का समर्थन नहीं था। हर कबीले के अलग नेता थे,उनकी महत्वाकांक्षाएं अलग थीं। इसी बीच तालिबान का उदय हुआ और वह जनता को यह समझाने में सफल रहा कि तालिबान अफगान जनता का सच्चा हितैषी है। उसने साल 1996 में बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार का तख्तापलट कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। तालिबानी नेता मुल्ला उमर जो देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था,उसने खुद को हेड आॅफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर लिया। तालिबान को सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने हीं मान्यता दी थी। तालिबानी कितने क्रूर थे यह इस बात से समझा जा सकता है कि उसने अपने पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की हत्या संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड से खींचकर कर दी थी। तालिबान ने शरिया कानून की आड़ में अफगानी महिलाओं की जिंदगी बद से बदतर कर दी। तालिबानी लड़ाके किसी के घर में घुसकर महिलाओं-बच्चियों के साथ मनमानी करते थे।

गौरतलब है कि तालिबान-2 के शासन में तालिबानियों के साथ पाकिस्तान, रूस और चीन मजबूती से खड़े हैं,जो भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है। चीन और पाकिस्तान की शह पर प्रशिक्षित तालिबानी लड़ाके कश्मीर में हस्तक्षेप कर सकते हैं। भारत ने कई वर्षों में फगानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और संस्थानों के पुनर्निर्माण में तीन अरब डॉलर का निवेश कर चुका है और बहुत सी परियोजनाओं का खाका लगभग तैयार है। पाकिस्तान और चीन के कहने पर तालिबान इन परियोजनाओं से भारत को बाहर कर सकता है।

भारत सरकार के अनुसार अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं। तालिबान के रुख को देखकर भारत को अपनी अफगान नीति फिर से तय करनी पड़ेगी, यद्यपि तालिबानियों ने अफगानिस्तान में भारत के कामों को काफी सराहा है।
चंद दिनों पहले तालिबान का प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद एक प्रेस कांफ्रेंस कर कहा था कि हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ कोई उलझन नहीं चाहते हैं। हमें हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार काम करने का अधिकार है। दूसरे देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण, नियम और कानून हैं। हमारे मूल्यों के अनुसार,अफगानों को अपने नियम और कानून तय करने का अधिकार है।अफगानी महिलाओं को शरिया कानून के तहत हक मिलेंगे। तालिबान अफगानिस्तान में क्या करता है यह कुछ दिनों बाद स्पष्ट हो जाएगा तब तक अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को दम साधे इंतजार ही करना होगा,क्योंकि अब उनके पास बहुत सीमित विकल्प बचे हैं।


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