कन्हैया की नैया

कन्हैया कुमार के अंदर कूट-कूट कर भरी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को उनके भाषणों व देश और कांग्रेस बचाने के नए नारे में आसानी से देखा जा सकता है। कन्हैया कुमार कहते हैं कि कांग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी दल है, इसलिए वो इसमें आए। कांग्रेस पार्टी पहले ही पंजाब व राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़ तक महत्त्वाकांक्षियों से भरी पड़ी है। जो पार्टी अपने अंदर के नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को ही नहीं संभाल पा रही है अब उसे गुजरात और बिहार से आयातित महत्त्वाकांक्षा भी संभालनी है।

भगत सिंह ने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए ‘हैट’ पहना था, लेकिन अपनी विचारधारा से किसी तरह का समझौता नहीं किया था। औपनिवेशिक भारत में भगत सिंह कांग्रेस नहीं बल्कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन पार्टी के सदस्य थे। लेकिन आज हर कोई अपनी विचारधारा में विचलन को न्यायोचित ठहराने के लिए भगत सिंह का सहारा ले रहा है। राजनीति को विचारधारा जैसे मुश्किल मार्ग से हटा कर लाल-नीला कुर्ता व बसंती पगड़ी में समेट दिया गया है। मुख्यधारा की राजनीति में सिर्फ खुद को बचाने और बनाने आए लोग देश बचाने का नारा दे रहे हैं। देश भी सोचता होगा कि इतने लोग हैं मुझे बचाने वाले और एक मैं हूं जो बच ही नहीं रहा। मीडिया के जरिए लोकप्रिय हुए वाम नायक कन्हैया अब अपने ‘वर्ग शत्रु’ को बचाने की पैरोकारी कर रहे हैं, देश बचाने के नाम पर। वाम विचारधारा से कन्हैया कुमार के मुक्ति-संग्राम पर बेबाक बोल

लिख रहा हूं मैं अंजाम, जिसका
कल आगाज आएगा
मेरे लहू का हर एक कतरा
इंकलाब लाएगा
भगत सिंह

आजादी, आजादी, पितृसत्ता से आजादी, मनुवाद से आजादी, पूंजीवाद से आजादी का नारा लगाने वाले नवनायक ने अचानक उस विचारधारा से ही आजादी ले ली, जो भगत सिंह के साथ जुड़ती है। वाम विचारधारा से मुक्ति का यह सीधा प्रसारण हुआ भगत सिंह के जन्मदिन पर। औपनिवेशिक भारत में भगत सिंह का निर्माण एक विचारधारा से हुआ था। भगत सिंह जानते थे कि क्रांति एक दिन में नहीं आती, देश को बचाने वाला अचानक आसमान से नहीं उतरता।

पूंजीवाद के खिलाफ साम्यवाद को बचाने का नारा देने वाले कन्हैया कुमार देश और कांग्रेस बचाने के नाम पर कांग्रेस में शामिल हो गए। तो सबसे पहले बात उस कांग्रेस की जिसे बचाना कन्हैया कुमार को इतना जरूरी लगा कि उनके लिए साम्यवादी विचारधारा ही गैरजरूरी हो गई। पिछले दिनों कांग्रेस से युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में चले गए और दूसरे युवा नेता सचिन पायलट के भी अब गए तो तब गए वाला अंदेशा लगा ही रहता है।

सिंधिया और पायलट के असंतोष का बड़ा कारण यही है कि कांग्रेस की पुरानी पीढ़ी सत्ता छोड़ना नहीं चाहती और नए लोगों के नेतृत्व के लिए जगह बन नहीं पा रही है। कन्हैया कुमार के भाकपा छोड़ने की वजह भी यही राजनीतिक महत्वाकांक्षा है। वैसे वहां मामला दूसरा था। वामपंथी दल अभी भी जनवादी तरीके से काम करते हैं, पहले जमीन पर काम करवाते हैं, अनुशासन के अंदर रखते हैं जिसे नए नायक अपनी बेइज्जती मान सकते हैं।

कन्हैया कुमार को तो फिर भी वाम के अंदर आम दलों जैसे निजी नायकत्व के साथ बेगूसराय का टिकट भी मिल गया था। कन्हैया चुनाव तो हार गए लेकिन उनकी महत्त्वाकांक्षा अन्य दलों के नेताओं की तरह हो गई। मैं इतना अच्छा बोल सकता हूं, मेरे इतने प्रशंसक हैं, मीडिया मुझे पसंद करता है तो फिर ऐसी विचारधारा में कैसे रहा जा सकता था जिसके जरिए तुरत-फुरत में सत्ता हासिल नहीं की जा सकती।

कन्हैया कुमार के अंदर कूट-कूट कर भरी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को उनके भाषणों व देश और कांग्रेस बचाने के नए नारे में आसानी से देखा जा सकता है। कन्हैया कुमार कहते हैं कि कांग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी दल है, इसलिए वो इसमें आए। कांग्रेस पार्टी पहले ही पंजाब व राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़ तक महत्त्वाकांक्षियों से भरी पड़ी है। जो पार्टी अपने अंदर के नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को ही नहीं संभाल पा रही है अब उसे गुजरात और बिहार से आयातित महत्त्वाकांक्षा भी संभालनी है। 2014 के बाद बने ये नायक जमीन से ऊपर उठ कर मीडिया की पैदाइश हैं। इसलिए इन्हें हमेशा अपनी निजी लोकप्रियता की चिंता हो जाती है। इनका अपने लिए करना ही पार्टी, देश, जनता और दुनिया के लिए करना हो जाता है।

कन्हैया कुमार कांग्रेस की सदस्यता लेने के बाद राहुल गांधी को आंबेडकर, गांधी और भगत सिंह का चित्र उपहार में देते हैं। दुखद यह है कि आज की राजनीति में भगत सिंह को उनकी पूरी विचारधारा से काट कर उन्हें सिर्फ ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ वाली लोकप्रिय पहचान दी गई है। ये वो भगत सिंह नहीं हैं जो साम्राज्यवाद के खिलाफ एक विचारधारात्मक लड़ाई लड़ते रहे और फांसी के फंदे पर चढ़ गए। अब कांग्रेस हो या भाजपा वो भगत सिंह को सिर्फ उनकी बंदूक वाली और बम फोड़ने वाली छवि के साथ लेकर आती है।

भगत सिंह के ‘बम-विस्फोट’ का जो पूरा दर्शन और विचारधारा है उसे हटा कर सिर्फ एक उत्तेजना को रख दिया गया है। भगत सिंह विचारधारा को समझने नहीं विचारधारा से भटकने के बाद अपने बचाव के लिए इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। कभी भगवंत सिंह मान तो कभी कन्हैया या मेवाणी, बसंती पगड़ी पहन भगत सिंह हो जाते हैं। यही वो बिंदु है जहां से विरोधाभास पैदा होता है। राजनीति को विचारधारा से नीचे गिरा कर लाल, नीला कुर्ता या बसंती पगड़ी के प्रतीकों में तब्दील कर दिया गया है। भगत सिंह ने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए ‘हैट’ पहना था, आज आप विचारधारा को चकमा देने के लिए पगड़ी पहन ले रहे हैं।

कन्हैया अपने पूरे राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए भाकपा को धन्यवाद भी देते हैं। कन्हैया जिस राजनीतिक पाठशाला से आते हैं उसकी पूरी विचारधारा भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ रही है। तो क्या अब कन्हैया के लिए सभी नीतिगत सवाल खत्म हो गए हैं। जिस समाजवाद की बात अब तक कन्हैया कर रहे थे वो क्या कांग्रेस की विचारधारा में परिवर्तित हो गया है? क्या कांग्रेस ने अपनी विचारधारा में किसी तरह का परिवर्तन कर लिया है? वाम दलों का कांग्रेस पर आरोप रहा है कि समाजवादी ढांचे में नवउदारवाद की पूरी नीति को उसने स्थापित किया। कांग्रेसी नीतियों के कारण आए राजनीतिक शून्य व भीषण भ्रष्टाचार की वजह से भाजपा इतनी मजबूत तरह से सत्ता में आई कि विपक्ष के लिए वजूद बचाना मुश्किल हो गया। अब कन्हैया कुमार कह रहे हैं कि भाजपा को हराने के लिए इस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को बचाना जरूरी है।

इसका मतलब साफ है कि आपने अपने विचारधारात्मक संघर्ष से पूरी तरह समझौता कर लिया है। कांग्रेस पर लगाए अपने ही आरोपों से आंख चुरा रहे हैं कि कांग्रेस नवउदारवादी पूंजीपरस्त नीतियों को लाकर अमेरिका परस्त हुई थी। इसके पहले कन्हैया अन्य संदर्भों में भी कई बार समझौता कर चुके हैं। अपनी टीआरपी को बढ़ाने के लिए स्टालिन मुर्दाबाद का नारा उन्होंने बहुत सोच-समझ कर लगाया था कि कभी भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाली अपनी राजनीति को जिंदाबाद कर सकें।

जेएनयू में अपने साथी रहे उमर खालिद के पक्ष में मजबूत तरीके से खड़े होने में कन्हैया कुमार ने किनारा कर लिया ताकि उन पर किसी तरह के सवाल न उठ सकें और हर लोकप्रिय मंच पर उनकी मांग बनी रहे। अपनी निजी छवि को लेकर वो इतने सतर्क रहे कि विपरीत धारा में बहने को तैयार हो गए। कांग्रेस भाजपा को टक्कर देने में जो मंदिर व जनेऊ वाली राजनीति शुरू कर चुकी है कन्हैया अब उसके कर्णधार बनने का दावा कर रहे हैं।

कन्हैया अगर अपनी विचारधारा की विपरीत धारा में कूदे हैं तो यह सीधे-सीधे दिखाई दे रहा है कि निजी मुक्ति व महत्त्वाकांक्षा के लिए कूदे हैं। कहते हैं कि पहले अपना दुश्मन तय कर लो तो दोस्त खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। कन्हैया ने घुट्टी में पीया कि पूंजीवादी व साम्राज्यवादी व्यवस्था शत्रु है। आज वो वास्तविक शत्रु से किनारा कर एक छद्म शत्रु का निर्माण करते हैं। अब ऐसे मित्र का चुनाव करते हैं जिसने इस शत्रु की निर्मिति में ही अपने निर्माण को बढ़ाया। ये जो दुश्मन की पहचान है और उससे दोस्त का चुनाव है तो अगर दुश्मन की पहचान गलत हो जाए तो दोस्त अपने आप ही गलत होगा।

यह पूरा संदर्भ वैचारिक भ्रष्टाचार का है। आत्ममुग्धता के चश्मे से देखी जा रही वैचारिक दृष्टि है। जब आपकी दृष्टि ही धूमिल हो जाती है तो आप गलत दुश्मन की पहचान करते हैं तो गलत दोस्त की भी पहचान करते हैं। कन्हैया के लिए चुनौती तो है कि विचार को दरकिनार करके किए इस राजनीतिक समझौते से वो कितना खोएंगे और कितना पाएंगे। आज चुनौती कांग्रेस के लिए भी है कि इतने महत्वाकांक्षी लोगों को एक साथ लाकर वो कहां तक अपनी नैया को खे सकेगी।


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