जलवायु आपातकाल: कहां खड़ा है भारत, कितना रास्ता बाकी


कई कदम उठाने के बावजूद जलवायु आपातकाल से निपटने की भारत की कोशिशें रंग नहीं ला पाई हैं।

कई कदम उठाने के बावजूद जलवायु आपातकाल से निपटने की भारत की कोशिशें रंग नहीं ला पाई हैं। कार्बन मुक्त होने के वादे के लिए सख्त उपायों की ओर उसे अभी लंबा रास्ता तय करना है। ग्लास्गो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन, यानी सीओपी26 की बैठक में शामिल हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के तीसरे सबसे बड़े प्रदूषण उत्सर्जक देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। भारत में 70 प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयले से होता है। प्रधानमंत्री की कोशिश भारत को एक ऐसे देश के रूप में पेश करने की है, जो जलवायु परिवर्तन के समाधान का हिस्सा है ना कि समस्या का। भारत ने अभी जलवायु परिवर्तन से मुकाबले को लेकर अपनी योजनाओं का खाका जमा नहीं कराया है, लेकिन माना जाता है कि वो 2015 में घोषित अपने लक्ष्यों में संशोधन कर सकता है।
पेरिस जलवायु समझौते का लक्ष्य

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की उत्सर्जन रिपोर्ट के मुताबिक, प्रमुख देशों में भारत ही है जो ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते के तहत निर्धारित अपने लक्ष्यों को हासिल करने के रास्ते पर है। मिसाल के लिए, भारत ने जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता यानी जीडीपी की प्रत्येक इकाई में कार्बन की उत्सर्जित मात्रा में 2005 के स्तरों से 2030 तक करीब 35 फीसद की कटौती करने की योजना बनाई है। भारत ने 2005 के स्तरों के लिहाज से 2020 तक अपनी जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता में कटौती 21 फीसद तक हासिल किया है। गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन क्षमता की भागीदारी करीब 40 फीसद तक करने के 2015 के अपने लक्ष्य के भी भारत करीब आता जा रहा है। उसे उम्मीद है कि 2023 तक यह लक्ष्य हासिल कर लेगा।
कार्बन मुक्त का वादा
वृक्षारोपण के जरिए अपने कार्बन सिंक में ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाइआक्साइड की वृद्धि करने के वादे में भारत पिछड़ रहा है। कोयला खनन क्षेत्र का निजीकरण करने की योजना ने इस प्रतिबद्धता को और धक्का पहुंचाया है। जानकारों की राय में भारत के लक्ष्य, विज्ञान पर आधारित होने के बजाय भूराजनीतिक वास्तविकताओं पर आधारित हैं। भारत की जलवायु महत्त्वाकांक्षा विज्ञान-सम्मत नहीं है। वैसे देखा जाए तो कोई देश धरती को बचाने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रहा है। संशोधित लक्ष्यों को देखा जाए तो भारत 2030 से पहले कोयला इस्तेमाल का उच्चतम स्तर हासिल करने का वादा करने की स्थिति में है। इसका आशय यह है कि देश किसी एक खास साल में कोयले की खपत की अधिकतम मात्रा तय कर दे और फिर आने वाले वर्षों में उसे नेट शून्य तक लाने के लिए कम करता जाए। दूसरे प्रमुख उत्सर्जकों से उलट भारत ने 2050 तक नेट शून्य कार्बन उत्सर्जन को हासिल करने का वादा अभी तक नहीं किया है।
प्रदूषण का हाल
आज दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं। जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव लोगों की सेहत और दूरगामी आर्थिक प्रगति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं। ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 7.1 फीसद है। ऐसे में भारत के सामने अपनी अलग तरह की चुनौतियां हैं। तमाम आकलन के मुताबिक, 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत हर देश द्वारा तय किए गए योगदान, धरती के बढ़ते तापमान को औसतन दो डिग्री सेल्सियस के स्तर पर सीमित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तक लाने की तो गुंजाइश ही नहीं दिखती।
क्या है रास्ता
वर्ष 2030 तक भारत की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने वाले 60 फीसद संसाधनों के नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोत से आने का लक्ष्य है। इसमें भी अधिक जोर सौर और पवन ऊर्जा पर होना चाहिए। जल विद्युत परियोजनाओं से पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सबसे बड़ी चुनौती कोयले के इस्तेमाल की है, जिससे सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। ऐसे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने से हम कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी से मुक्ति पा सकेंगे। दूसरा कदम परिवहन की हरित व्यवस्था की ओर तेर्जी से कदम बढ़ाने का है। इसके लिए निजी और सरकारी क्षेत्र से वर्ष 2030 तक लगभग 180 अरब डालर के निवेश की जरूरत होगी। तीसरे, भारत को शहरी आवास की नए सिरे से परिकल्पित करने की जरूरत होगी। नई रिहाइशी परियोजनाएं और कारोबारी संपत्तियों के लिए हरित नियम बनाने होंगे।

विस्थापन का मुद्दा

कुदरती आपदाओं के कारण भारत में विस्थापित हो रहे लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। गरीब लोग इन आपदाओं का नुकसान सहन नहीं कर पा रहे हैं।
‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायर्नमेंट एंड डेवलपमेंट’ के शोधकर्ताओं ने पाया है कि देश के सबसे गरीब लोग इस कारण अपने घरबार छोड़कर दूसरी जगहों पर जाने को मजबूर हैं। शोधकर्ताओं ने तीन राज्यों के एक हजार घरों का सर्वेक्षण किया। सर्वे में शामिल 70 फीसद लोगों ने कहा कि वे प्राकृतिक आपदा के तुरंत बाद विस्थापित हुए। देश के बहुत से गरीब लोग मौसमी आपदाओं के कारण होने वाली बर्बादी को वहन करने में नाकाम रहे हैं।सूखा, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और बाढ़ ने पहले से ही संघर्ष कर रहे लोगों पर और अधिक दबाव डाला है।

क्या कहते हैं जानकार

जलवायु वित्त सहायता में सक्षम होने के बावजूद विकसित देशों ने ठोस कुछ नहीं किया है। विकसित राष्ट्र 2009 के बाद से विकासशील देशों को सहयोग के लिए प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डालर देने के लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहे हैं। इसके बावजूद इसे अपना 2025 तक का महत्वाकांक्षी लक्ष्य बता रहे हैं।

  • भूपेंद्र यादव, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री

भारत लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह पर है और जलवायु कार्रवाई में जी20 देशों के बीच स्पष्ट रूप से सर्वाधिक अच्छा काम करने वाला देश है। जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक 2021 के अनुसार भारत दुनिया के दस शीर्ष अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल है।

  • हर्षवर्धन श्रृंगला, विदेश सचिव



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