देश के सैन्य इतिहास को मिलता सही स्थान – अमर जवान ज्योति

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इंडिया गेट पर प्रज्जवलित अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में ले जाने के निर्णय ने एक अनावश्यक विवाद को जन्म दे दिया है। यह एक प्रतीकात्मक और समावेशी धरोहर है, जिसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।

एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की कल्पना और निर्माण दशकों पहले किया जाना चाहिए था। इसके अभाव में 1971 के युद्ध में शहीद हुए जवानों को श्रद्धाजंलि देने के लिए अंग्रेजों के बनाए इंडिया गेट को चुन लिया गया। विडंबना यह रही कि प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना के 13,000 जवानों के नाम तो इस पर अंकित थे, परंतु 1971 के युद्ध में शहीद जवानों का कोई उल्लेख यहाँ नही किया जा सका था।

दिग्गजों और सैन्य इतिहासकारों के दशकों की मांग के बाद, 25 फरवरी, 2019 को अंततः राष्ट्रीय युद्ध स्मारक देश को समर्पित किया गया था। तभी से देश पर बलिदान हुए सैन्य-कर्मियों से जुड़ा प्रत्येक कार्यक्रम यहाँ से संचालित होने लगा। निश्चय ही इससे देश के बलिदानियों की स्मृति को दृढ़ करने की दिशा में प्रोत्साहन मिला है।

एक अलग तल पर, यह औपनिवेशिक सैन्य इतिहास को समकालीन और स्वतंत्रता के बाद के भारतीय सैन्य इतिहास से अलग करने का भी सही प्रयास है।

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर अमर जवान ज्योति के विलय को एक ही समय में याद रखने, और भूलने की प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे पहले नेताजी सुभाष और भारतीय राष्ट्रीय सेना की विरासत पर शायद ही कभी चर्चा की गई थी। इस परिसर में नेताजी की प्रतिमा की स्थापना से, स्वतंत्रता की लड़ाई में उग्र राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति के रूप में उनकी विरासत को सही स्थान मिलेगा।

इंडिया गेट पर जाने वाले भारतीय अब इस बात पर चिंतन करेंगे कि उनके लाखों देशवासियों को सैन्य सेवा में शामिल होने, और ब्रिटिश शासन की सेवा के लिए आखिर क्यों मजबूर किया गया। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर वे वर्तमान को आत्मसात करेंगे, और देखेंगे कि भारत की सशस्त्र सेनाएं उसके लोकतंत्र का एक स्तंभ क्यों हैं।

इस व्यापक समावेशी मुद्दे में राजनीति को शामिल करने की बजाय, आशा की जानी चाहिए कि अधिक-से-अधिक भारतीय इस स्मारक को देखकर स्वतंत्र भारत के सशस्त्र बलों की विरासत पर गर्व कर सकेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अर्जुन सुब्रमण्यम के लेख पर आधारित। 23 जनवरी, 2022

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