भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता

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सितंबर, 2021 में राज्य सभा के सभापति ने रामाचार्यलु की नियुक्ति महासचिव के रूप में की है। यह नियुक्ति इसलिए महत्वपूर्ण कही जा सकती है, क्योंकि ये नियुक्ति बाहरी व्यक्ति या नौकरशाही से न होकर, संसद के सचिवालय से की गई है। ज्ञातव्य हो कि संसदी-सचिवालय कर्मियों की ऐसी मांग लंबे समय से चली आ रही थी।

संसद के विधायी पदों पर नियुक्ति के बारे में संविधान –

संविधान का अनुच्छेद 98, संसद के दोनों सदनों के लिए अलग-अलग सचिवालयों का दायरा प्रदान करता है। अनुच्छेद में सिद्धांत रखा गया है कि सचिवालयों को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए।

अभी तक की परंपरा के नुकसान –

  • सामान्यतः सेवारत या सेवानिवृत्त सिविल सेवकों को संसद के सदनों में महासचिव के पद पर नियुक्त किया जाता रहा है। ये अधिकारी अपने पिछले करियर के दबदबे के साथ आते हैं।
  • इससे न केवल सचिवालय की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का उद्देश्य परास्त होता है, बल्कि हितों के टकराव बने रहते हैं। यह शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

विधायी निकायों हेतु अखिल भारतीय सेवा की आवश्यकता

संसद के सुचारु और निष्पक्ष कार्य संपादन के लिए एक स्थायी सचिवालय की व्यवस्था की गई है। एक मजबूत और स्थिर संसद ही कार्यपालिका को जवाबदेह बना सकती है।

  • भारत में सैकड़ों विधायी निकाय हैं, जिनमें पंचायत, ब्लॉक पंचायत, जिला परिषद् से लेकर नगर-निगम, राज्य विधानमंडल और केंद्रीय संसद शामिल हैं। इन निकायों के पास अपनी भर्ती प्रक्रिया और प्रशिक्षण एजेंसी की कमी है। अभी तक संसद और राज्य सचिवालय, नौकरशाहों के अपने पूल से अलग-अलग भर्ती करते हैं।
  • सक्षम और मजबूत विधायी संस्थानों के लिए योग्य और अच्छी तरह से प्रशिक्षित कर्मचारियों की जरूरत होती है।
  • भारतीय विधायी सेवा, एक संयुक्त और अनुभवी विधायी कर्मचारी संवर्ग को खड़ा कर सकती है। इससे वे स्थानीय निकायों से लेकर केंद्रीय संसद के सचिवालयों में सेवा दे सकेंगे।
  • इस हेतु राज्यसभा, अनुच्छेद 312 के तहत एक प्रस्ताव पारित कर सकती है।

ब्रिटैन में हाउस ऑफ कॉमन्स के क्लर्कों की नियुक्ति, विधायी स्टाफ पूल से की जाती है। इसका गठन ही संसद की सेवा के लिए किया गया है।

भारत को भी ऐसी लोकतांत्रिक संस्थागत प्रथाओं को अपनाने पर विचार करना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित विनोद भानु के लेख पर आधारित। 23 मार्च, 2022

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