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पिछले दिनों सुप्रसिद्ध फिल्मस्टार शाहरूख खान के पुत्र व उनके साथियों को एक दुर्भावनापूर्ण जांच के चलते गिरफ्तार कर लिया गया था। हफ्तों बाद उन्हें मिली जमानत से जो सामने आया, वह यह कि बिना पर्याप्त सबूतों के गिरफ्तार व्यक्तियों को किस प्रकार से क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए।
आर्यन खान के मामले में पाई गई प्रारंभिक जांच की चूक होना कोई इकलौता मामला नहीं है। ऐसे अनेक मामला हैं, जिनके तहत बेकसूर व्यक्तियों को सलाखों के पीछे कैद कर दिया जाता है।
एनसीबी जैसी देश की जिम्मेदार संस्थाएं, जिनका प्राथमिक काम अंतरराष्ट्रीय तस्करी नेटवर्क को घेरना है, अगर ‘फिक्सिंग’ में लिप्त पाई जाने लगी, तो क्या उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए?
यह समय है, जब सरकार बिना सबूत के जेल में बंद लोगों को मुआवजा देने के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करे। हालांकि संवैधानिक अदालतें कभी-कभी मौद्रिक प्रतिपूर्ति देने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करती हैं। दीवानी वाद के लिए भी कानून में प्रावधान है। लेकिन इसमें समय लगता है। भारत के विधि आयोग ने ऐसे मामलों में मुआवजा देने के लिए एक कानून बनाने की सिफारिश की है।
वर्तमान में, सीआरपीसी की धारा 358 में उस व्यक्ति पर मामूली जुर्माना लगाने का प्रावधान है, जिसकी शिकायत पर किसी व्यक्ति को पर्याप्त आधार के बिना गिरफ्तार किया जाता है। इस तरह के प्रावधानों का विस्तार किया जाना चाहिए। ताकि अनावश्यक गिरफ्तारी के लिए सरकार उचित मुआवजे को कवर कर सके।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 30 मई, 2022
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