आरक्षण से जुड़ी जाति की राजनीति

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भारत में आरक्षण की शुरूआत समाज के पिछड़े वर्गों को सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर उठाने के लिए की गई थी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, आरक्षण का यह उद्देश्य विकृत हो चला है। इसका संबंध केवल अभावग्रस्त जनता के उत्थान का न होकर राजनैतिक मकड़ जाल में उलझा हुआ दिखाई देने लगा है। इसके प्रमाण कई जगह मिलते हैं-

  • हाल के दशकों में हुए आरक्षण के विस्तार में जाति की राजनीति साफ तौर पर दिखाई देती है। पिछले साल ही एक संविधान पीठ ने महाराष्ट्र में एक कानून ऐसा पाया है, जो मराठों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया है। इससे राज्य में आरक्षण की कुल 50% सीमा का उल्लंघन होता है। यह असंवैधानिक है। लेकिन राज्य के उपमुख्यमंत्री ने इसे आरक्षण प्रतिशत को और आगे ले जाने का नारा दिया है। यही हाल छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, जाट और गुज्जरों के मामले में चल रहा है।
  • जाति के अनुपात में आरक्षण दिए जाने की मांग जोर पकड़ रही है।
  • न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि इस संबंध में संवैधानिक सीमाओं का पालन करवा सकें। लेकिन उनकी भी राजनीतिक सांठ-गांठ लगती है। हाल ही में न्यायालय में ईडब्ल्यूएस कोटा में आय सीमा और 50% की लक्ष्मण रेखा के मामले आए थे, जिनमें न्यायालय के निर्णयों से संशय और जटिलताएं ही बढ़ीं।
  • स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण के पत्ते खुलकर खेलें जा रहे हैं। न्यायालयों के पास एक ही रास्ता है कि वे इस मार्ग से ही हट जाएं।

आरक्षण पर जोर देकर लड़े जाने वाले चुनावों से स्पष्ट है कि ये केवल जाति की राजनीति के माध्यम से जीत को लक्ष्य बना कर चल रहे हैं। अभावग्रस्त वर्ग के कल्याण मार्ग पर चलकर जहाँ चीन ने अपना उत्थान किया था, वहाँ भारत पथभ्रष्ट होकर अपने पतन का मार्ग तैयार कर रहा है। ऐसी राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 9 नवंबर, 2022

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