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भारत में मोटे अनाज को बहुत अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी दिशा में भारत को विश्व.हब बनाने के उद्देश्य से सरकार ने बजट में भी इस पर प्रकाश डाला है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोटे अनाज का उत्पादन और घरेलू उपभोग बढ़ाने से पोषण और पर्यावरण, दोनों को ही लाभ पहुंच सकता है। साथ ही, निर्यात भी बढ़ सकता है।
इस उद्देश्य को लेकर आने वाली चुनौतियों पर कुछ बिंदु –
- एक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि 2022-23 के रबी फसल के मौसम में मोटे अनाज का रकबा पांच साल के औसत में 5% कम हो गया है। जबकि कुल कृषि क्षेत्र 14% बढ़कर 7.21 करोड़ हेक्टेयर हो गया है।
हालांकि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि 2013 में सरकार ने खेती को विविध करने के उद्देश्य से पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश जैसे मुख्य हरित क्रांति वाले राज्यों को धान के रकबे से दूर कर दिया था। हरियाणा सरकार ने भी धान से भिन्न फसल के लिए 7000/प्रति एकड़ नकद सब्सिडी का प्रस्ताव दिया था। ये तरीके विफल रहे थे।
- भारत में अभी भी गेहूं और चावल ही मुख्य भोजन बने हुए हैं। 2010-11 और 2020-21 के बीच भी भारत में मोटे अनाज का रकबा 15% घट गया था।
- 2020-21 में कुल अनाज उत्पादन का 18% ही मोटा अनाज है।
- सरकार की बड़ी खाद्य सुरक्षा योजना, जो 80 करोड़ लोगों का पेट भरती है, में चावल और गेहूं की ही उपस्थिति ज्यादा है। इसका कारण यही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में की जाने वाली खरीद का पूरा फोकस चावल और गेंहू पर ही रहता है। किसान वही उगाना चाहते हैं, जिनके सही मूल्य की गारंटी होती है।
अतः जब तक किसानों को मोटे अनाज के लिए सही मूल्य मिलने की गारंटी नहीं दी जाती है, तब तक वे इसकी पैदावार क्यों करना चाहेंगे। सरकार को चाहिए कि भारत को मोटे अनाज का वैश्विक हब बनाने के लिए किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन देना शुरू करे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 6 फरवरी, 2023
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