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भारत में एनसीईआरटी के माध्यम से इतिहास के पाठ्यक्रम को लगातार बदला जा रहा है। स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास पर कड़वे मतभेद न तो नए हैं, और न ही भारत तक सीमित है। समय के साथ और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों और राजनीतिक व्यवस्थाओं के साथ व्याख्याएं बदलती हैं।
अमेरिका में नस्लवाद थ्योरी विवाद के बाद से अलग-अलग राज्य जिम क्रो कानूनों और सिविल राइट्स मूवमेंट को अलग-अलग तरीके से पढ़ाते आ रहे हैं। ब्रिटेन में अभी भी इस बात को लेकर द्वंद है कि साम्राज्य के अत्याचारों को पाठ्यपुस्तकों में किस सीमा तक स्वीकार किया जाए।
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा की है कि वे यूपी बोर्ड की पढ़ाई, एनसीईआरटी के तर्कसंगत पाठ्यक्रम के अनुसार कराएंगे। इस तर्कसंगत पाठ्यक्रम में गुणवत्ता से समझौता किया जा रहा है। इतिहास से मुगल शासकों से संबोधित सामग्री को हटाया जा रहा है। गांधीजी की हत्या, आपातकाल से सत्ता के दुरूपयोग या 2002 के गुजरात दंगों के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने जैसे विषयों को अपने तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके प्रति कोई जवाबदेही भी नहीं दिखाई जा रही है।
जब संशोधन इस प्रकार के हों कि हमारे समृद्ध इतिहास के तथ्यों को नए तथ्यों के साथ आसानी से बदला जा सके, तो यह एक प्रकार के खतरनाक चलन को जन्म देता है।
कुल मिलाकर, पाठ्यक्रम में किए जाने वाले परिवर्तन बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं, क्योंकि भारत में पहले ही स्कूलों की शिक्षा के परिणाम कमजोर हैं। अतः सरकारों को पाठ्यक्रम में बदलाव इस दृष्टि से करना चाहिए कि वे भारत के करोड़ों बच्चों के भविष्य को मजबूती प्रदान कर सकें।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 6 अप्रैल, 2023
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