महिलाओं की पीड़ा को कम करने का एक प्रयास

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हाल ही में उच्च्तम न्यायालय ने असफल विवाह के लिए तलाक के कूलिंग-ऑफ पीरिएड को विशेष मामलों में छः माह से कम करने का निर्णय लिया है। सामान्यतः यह अवधि छः से अठारह माह हुआ करती है। न्यायालय ने माना है कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत असाधारण विवेक के आधार पर ऐसा किया जा सकता है। डेटा से पता चलता है कि तलाक चाहने वाली कई भारतीय महिलाओं की भावनात्मक और शारीरिक पीड़ा, वर्तमान में विवाहित महिलाओं से कहीं बहुत अधिक रही है। इस पर कुछ बिंदु (नेशलन फैमिली हैल्थ सर्वे-5 पर आधारित) –

  • तलाकशुदा महिलाओं में से 42.9% ने यौन हिंसा का सामना किया है, जबकि वर्तमान में विवाहित महिलाओं में से 27.3% ही इससे पीड़ित हैं।
  • गर्भवती होने पर शारीरिक हिंसा सहन करने वाली तलाकशुदा महिलाओं का प्रतिशत अपेक्षाकृत ढाई गुना अधिक है।
  • लगभग 21% तलाकशुदा महिलाओं पर व्यभिचार का आरोप लगाया गया है। जबकि वर्तमान में विवाहित महिलाओं में से 10.1% पर ही इस प्रकार का आरोप लगता है।
  • तलाकशुदा/अलग हुई महिलाओं में से 49.1% कामकाजी थीं। वर्तमान में विवाहित महिलाओं में से 26.6% ही कामकाजी हैं। कामकाजी तलाकशुदा महिलाओं में से 72.8% को अब अपने व्यय पर निर्णय लेने का अधिकार मिल चुका है।
  • तलाकशुदा या अलग हुई महिलाओं को अपने वर्तमान पतियों से अपेक्षाकृत कहीं अधिक प्रताड़ना मिलती है।
  • वर्तमान में विवाहित महिलाओं में से 30% को भावनात्मक, शारीरिक या यौन हिंसा बर्दाश्त करनी पड़ती है। इनमें से 80% महिलाएं किसी से अपना दुख नहीं बताती हैं। इस कारण से भारत में तलाक का प्रतिशत इतना कम है।

इसके अलावा हमारे देश में तलाकशुदा या अलग होने के बाद भी महिलाओं को पूर्ण स्वायत्तता नहीं मिल पाती है। इनमें से केवल 70% को ही अपनी मर्जी से अकेले आने-जाने और पैसे खर्च करने की स्वतंत्रता है।

तलाक या कटु वैवाहिक संबंधों से अलग होने के बाद भी हमारे देश में महिलाओं को बहुत सम्मानजनक दर्जा नहीं मिल पाता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को अच्छा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार तलाक या अलगाव के बाद उनकी पीड़ा का कुछ प्रतिशत ही सही, कम तो हो जाता है।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित रेबेका रोज वर्गीस और विग्नेश राधाकृष्णन् के लेख पर आधारित। 8 मई, 2023

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