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हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने ऐसा निर्णय दिया है, जो महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता को स्थापित करता है। रेहाना फातिमा ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उनके नाबालिक बेटे और बेटी को उनके नंगे धड़ पर पेंटिंग करके दिखाया गया था। इसके लिए उन पर पॉक्सो और आईटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था।
फातिमा का कृत्य पारंपरिक मूल्यों के विपरीत था, जो एक महिला के शरीर को केवल एक महिला के शरीर के रूप में नहीं देखते हैं। इसमें नैतिकता को आधार बनाकर माना जाता है कि महिलाओं का शरीर निष्क्रिय संपत्ति है, जिसे पुरूषों के निर्णय के अनुसार ढका या उघाड़ा जा सकता है।
उच्च न्यायालय ने फातिमा पर लगे आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि ‘एक नग्न महिला शरीर को सामान्य रूप से अश्लील नहीं कहा जा सकता है। ….. यौन प्रवृत्ति का भी कोई सबूत नहीं मिलता है।’ उल्टे न्यायालय ने माना कि फातिमा ने ऐसा करके यौन शोषण और नैतिक पुलिसिंग के खिलाफ संदेश दिया है। न्यायालय का ऐसा निर्णय उसकी सक्रियता, बुद्धिमानी और प्रगतिशील सोच के फैसलों में एक नई कड़ी जोड़ता है।
यदि फातिमा के संदेश को व्यापक पृष्ठभूमि से जोड़ें, तो दो दशक पूर्व मणिपुर में हुए एक बलात्कार और हत्या के बाद वहाँ की अधेड़ उम्र की माताओं ने सुरक्षा बलों को शर्मसार करने के लिए निर्वस्त्र प्रदर्शन किया था। भारत में और भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। एक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज ऐसे किसी भी एक्शन को दबाना चाहेगा। इसलिए एक प्रबुद्ध न्यायपालिका का होना इतना महत्वपूर्ण है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 7 जून, 2023
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